________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 15 तत्थ तुमे पुन्वण्हे पाणं पि न चेव ताव पेयव्वं / / नो जाव चेइयाई साहू विय वंदिया विहिणा // 37 // मज्झण्हे पुणरवि वंदिऊण नियमेण कप्पए भोत्तुं / अवरण्हे पुणरवि वंदिऊण नियमेण सयणं ति // 38 // एवमभिग्गहबंधं काउं तो वद्धमाणविजाए / अभिमंतिऊण गेण्हइ सत्त गुरू गंधमुट्ठीओ // 39 // तस्सोत्तमंगदेसे 'नित्थारगपारगो भविज' ति / उच्चारेमाणु च्चिय निक्खिवइ गुरू सुपणिहाणं // 40 // एयाए विजाए पभावजोगेण जो स किर भन्यो। अहिगयकजाण लहुं नित्थारगपारगो होइ // 41 // अह चउविहो वि संघो 'नित्थारगपारगो भविज तुम धन्नो / सुलक्षणो जंपिरो त्ति से निक्खिवह गंधे // 42 // तत्तो जिणपडिमाए पूयादेसाउ सुरहिगंधड्ढे / अमिलाणं सियदामं गिहिय विहिणा सहत्थेणं // 43 // तस्सोभयखंधेसुं आरोवितेण सुद्धचित्तेणं / निस्संदेहं गुरुणा वत्तव्वं एरिसं वयणं // 44 // - तेथी तुं दिवसना पूर्व भागमां-सवारे ज्यां सुधी चैत्यो अने साधुओने विधिपूर्वक वंदन न करे त्यां सुधी तारे पाणी पण न पीवं; मध्याह्ने पण फरीथी चैत्यो अने साधुओने वांदीने ज (वांद्या पछी ज) आहार करवो तने कल्पे (भोजन क) अने दिवसना पाछला भागमां पण 'फरीथी ए ज रीते वंदन कर्या पछी ज रात्रिए शयन करवू तने कल्पे // 37-38 // 20 आ प्रकारे अभिग्रहबंध करीने (अभिग्रह करावीने ) गुरु गंध( वासक्षेप )नी सात मूठीओने वर्धमानविद्याथी मंतरीने ग्रहण करे छे अने ते ( उपधान करनार )ना मस्तक उपर 'नित्थारगपारगो भविज'–'तुं संसारने पार करनारो था' ए प्रकारे कहेता तेओ (गुरु) प्रणिधानपूर्वक (वास) निक्षेप करे छे / / 39-40 / / ___ आ विद्याना प्रभावनायोगथी जो ते खरेखर भव्य होय तो स्वीकारेला कार्योना पारने 25 शीघ्रतः पामनारो थाय छे // 41 // हवे चतुर्विध संघ पण-तमे संसारने पार करनारा थाओ, तमे धन्य छो, सुलक्षण छो' एम बोलीने ते गंध (वासक्षेप ) तेना उपर नाखे छे // 42 // ते पछी (गुरुए ) श्री जिनेश्वर भगवाननी प्रतिमानी पूजाना आदेशथी सुरभिगंधथी आढय, नहीं करमायेली एवी श्वेत माळाने ग्रहण करीने पोताने हाथे विधिपूर्वक शुद्ध चित्तथी तेना बन्ने 30 खभा उपर नाखता गुरुए आ प्रकारे निःसंदेह कहेQ जोईए // 43-44 //