________________ [प्राईत उवहाणविहिथुत्तं / तयणंतरं गुणड्ढे साहू वंदिज परमभत्तीए / साहम्मियाण कुजा जहारिहं तह पणामाई // 30 // जाव य महग्ध-माउक चोक्ख-वत्थप्पयाणपुन्वेणं / पडिवत्तिविहाणेणं काययो गुरुयसम्माणो // 31 // . एयावसरे गुरुणा सुविइयगंभीरसमयसारेण / अक्खेवणि-विक्खेवणि-संवेयणिपमुहविहिणा उ // 32 // भवनिव्वेयपहाणा सद्धासंवेगसाहणे पउणा। गुरुएण पबंधेणं धम्मकहा होइ कायया // 33 // सद्धासंवेगपरं सूरी नाऊण तं तओ भव्वं / चिइवंदणाइकरणे इय वयणं भणइ निउणमई // 34 // भो भो देवाणुप्पिय ! संपावियसयलजम्मसाफल्ल! / तुमए अञ्जप्पमिई तिकालं जावजीवाए // 35 // वंदेयव्वाई चेइयाई एगग्गसुथिरचित्तेणं / खणभंगुराओ मणुयत्तणाओ इणमेव सारं ति // 36 // 15 ते पछी गुणाढ्य एवा साधुओने परमभक्तिथी वंदन करे अने साधर्मिकोने यथोचित रीते प्रणामादि करे // 30 // ते समये बहुमूल्य, मृदु अने चोक्खां वस्त्रो आपवापूर्वक प्रतिपत्तिविधानवडे ( सेवा-भक्ति वडे ) गुरुतुं सन्मान करवू जोईए // 31 // ए अवसरे सारी रीते जाण्यो छे गंभीर एवा सिद्धांतना सारने जेणे एवा गुरुए 20 आक्षेपणी (श्रोताओना मनने आकर्षण करनारी ), विक्षेपणी (कथानो एक भेद ), संवेदनी (वैराग्यजनक कथा) प्रमुखविधिथी भवनिर्वेदप्रधान तथा श्रद्धा अने संवेगने साधवामां (प्राप्त कराववामां) प्रगुण (पटु, निपुण ) एवी धर्मकथाने मोटा प्रबंधपूर्वक करवी जोईए // 32-33 // ते पछी श्रद्धा अने संवेगमां परायण एवा तेने 'भव्य' जाणीने (ते व्यक्तिमा देखाता श्रद्धा अने संवेगना चिह्नोथी "ते भव्य छे” एम जाणीने ) निपुणमतिवाळा आचार्य चैत्यवंदन करवा 25 माटे आ प्रकारनां वचन भणे // 34 // हे देवानुप्रिय! आ जन्मनी समग्र सफळताने प्राप्त करनार ! तारे आजथी जीवनपर्यंत त्रणे काळ एकाग्र अने अत्यंत स्थिर चित्तथी चैत्योर्नु वंदन करवू जोईए; कारणके आ क्षणभंगुर एवा. मनुष्यपणानो सार आ ज छे // 35-36 //