________________ 100 उवहाणविहिथुत्तं [प्राकृत 'भो भो सुलद्धनियजम्म! निचियअइगुरुअ-पुण्णपब्भार!। नारय-तिरियगईओ तुज्झ अवस्सं निरुद्धाओ // 45 // नो बंधगो य सुंदर! तुममित्तो अयस-नीयगोत्ताणं / न य दुलहो तुह जम्मंतरे वि एसो नमोकारो // 46 // पंचनमोक्कारपभाषओ य जम्मंतरे वि किर तुज्झ / जातीकुलरूवारोग्गसंपयाओ पहाणाओ // 47 // अन्नं च इमाउ चिय न हुंति मणुया कयावि जियलोए / दासा पेसा दुभगा नीया विगलिंदिया चेव // 48 // किं बहुणा जे गोयम ! विहिणा एवं सुयं अहिञ्जित्ता। ... सुयभणियविहाणेणं सुद्धे सीले अभिरमिञ्जा // 49 // ते जइ नो सेणं चिय भवेण निव्वाणमुत्तमं पत्ता। ताऽणुत्तरगेविआइएसु सुइरं अभिरमेउं // 50 // उत्तमकुलम्मि उक्किट्ठलट्ठसव्वंगसुंदरा पयडी / सयलकलापत्तट्ठा जणमणआणंदणा होउं // 51 // 15 पोताना जन्मने सारी रीते सफळ करनार, मोटा पुण्यभारने एकत्रित करनार हे ( उपधान करनार ) आराधक! तारी नारक अने तिर्यंच गतिओ अवश्य रोकाई गई छे // 45 // हे सुंदर ! तुं हवे पछी अपयशनामकर्म अने नीचगोत्रकर्मनो बंधक नहीं बने ! अने तने चीजा जन्मोमां पण आ नमस्कार दुर्लभ नहीं थाय // 46 // पंच नमस्कारना प्रभावथी तने बीजा जन्ममां पण उच्च जाति, कुळ, रूप अने आरोग्यरूप 20 संपत्तिओ अवश्य प्राप्त थशे // 4 // वळी, खरेखर आथी मनुष्यो कोईपण काळे जीवलोकमां दास, चाकर, दुर्भागी, नीच अने इन्द्रियोनी खोडखांपणवाळा थता नथी // 48 // हे गौतम ! वधु शुं कहुं ? विधिपूर्वक आ श्रुतनो अभ्यास करीने श्रुतमां दर्शावेला विधान अनुसार शुद्ध शीलमां तुं रमणशील बन // 49 // 25 जो तेओ ते ज भवमा उत्तम निर्वाण ( मोक्ष )ने प्राप्त न करे तो अनुत्तरविमान अथवा गैवेयक बगेरेमा लांबा समय सुधी सुखो भोगवीने; उत्तम कुळमां (जन्म लईने ); शरीरथी उत्कृष्ट, लष्ट अने सर्वांगसुंदर, सर्व कळाओमां निष्णात, मनुष्योना मनने आनंद आपनारा थईने;