________________ 358 कुवलयमालासंदब्भो। [प्राकृत सुस्मसंति य गुरुणो वेयावच्चं करेंति अण्णे वि / अण्णे सामायारिं सिक्खंति य सुत्थिया बहुसो // [87-22] दंसण-रयणं-अण्णे पालेंति य के वि कह वि चारित्तं / जिणवर-गणहर-रइयं अण्णे णाणं पसंसंति // [87-23 ] अवि य // सुत्तत्थ-संसयाइ य अवरे पुच्छंति के वि तत्थेव / सद्दत्योभयजुत्ते करेंति अब्भासं वायम्मि // [87-24] धम्माधम्म-पयत्थे के वि णिस्वेति हेउ-वादेहि। जीवाण बंध-मोक्खपयं च भाति अण्णे वि // [87-25]. तेलोक-वंदणिज्जे-सुक्कझाणम्मि के वि वटुंति / अण्णे दोग्गइ-णासं धम्मज्झाणं समल्लीणा // [87-26 ] मय-माण-कोह-लोहे अवरे णिदंति दिट्ठ-माहप्पा / दुह-सय-पउरावत्तं अवरे णिदंति भव-जलहिं // [87-27 ] इय देस-भत्त-महिला-राय-कहाणत्थं वजिउं दूरं। सज्झाय-झाण-णिरए अह पेच्छइ साहुणो राया // [87-28] 15 अन्य केटलाक गुरुमहाराजनी शुश्रूषा करे छे, केटलाक वेयावच्च करे छे, अन्य सुस्थित मुनिओ वारंवार समाचारीने (आचारने ) शीखे छे // [ 87-22 ] ___ अन्य मुनिओ दर्शनरत्नने साचवे छे, तो केटलाक कोईपण भोगे चारित्रने आराधे छे, वळी बीजा मुनिवरो श्री जिनवरोए (सूत्रथी कहेल) अने गणधरोए (अर्थथी ) रचेल ज्ञानने प्रशंसे छे / [87-23 ] वळी20 केटलाक त्यां सूत्रार्थना संशयने पूछे छे अने केटलाक सूत्र, अर्थ अने तदुभयथी युक्त एवा वादमां अभ्यास करे छे // [ 87-24] केटलाक हेतुवादवडे धर्माधर्म पदार्थोने प्ररूपे छे, अन्य वळी जीवोना बंध अने मोक्षपदने विचारे छे / [87-25] | त्रण लोकने वन्दनीय एवा शुक्लध्यानमा केटलाक स्थिर थया छे, तो केटलाक दुर्गतिना 25 विनाशक धर्मध्यानमां सारी रीते लीन थया छे // [87-26 ] मद, मान, क्रोध, लोभना माहात्म्य-प्रभाव-विपाकने जाणता केटलाक क्रोधादिने निंदे छे, तो केटलाक सेंकडो दुःखोना घणा आवर्तोथी भरेला भवसमुद्रने निंदे छे / [87.27 ] ए प्रमाणे देशकथा, भक्तकथा, स्त्रीकथा अने राजकथाना अनर्थोने दूरथी तजीने स्वाध्याय अने ध्यानमा रक्त एवा साधुओने राजा जुए छे // [87-28 ]