________________ 441 - 10 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / (2) एअस्स पभावेणं पालिजंतस्स सइ पयत्तेणं / जम्मंतरेऽवि जीवा पावंति न दुक्खदोगचं // 166 // 441 // चिंतामणी अउव्वो एअमपुव्वो अ कप्परुक्खुत्ति / एवं परमो मंतो एअं परमामयसरिच्छं // 167 // 442 // अह मणमंदिरसुंदरफुरंतजिणगुणनिरंजणुजोओ। पंचनमुक्कारसमे पाणे पणओ विसजेइ // 168 // 443 // परिणामविसुद्धीए सोहम्मे सुरवरो महिड्डीओ। आराहिऊण जायइ भत्तपरिनं जहन्नं सो // 169 // 444 // उक्कोसेण गिहत्थो अञ्चुअकप्पंमि जायए अमरो / निव्वाणसुहं पावइ साहू सव्वट्ठसिद्धिं वा // 170 // 445 // अनुवाद हमेशां आदरपूर्वक साधना कराता एवा आ नमस्कारमंत्रना प्रभावथी, जीवो अन्य जन्मोमां पण दुःख अने दुर्भाग्यने पामता नथी // 441 // - आ (मंत्र ) अपूर्व चिंतामणि छे, अपूर्व कल्पवृक्ष छे, परम मंत्र छे अने परम अमृत 15 समान छे // 442 // __ श्रीजिनेश्वर भगवंतना गुणोनो निर्मळ उद्योत जेना मनोमंदिरमा स्फुरायमान छे, एवो ते धैर्यवान पुरुष पंचनमस्कारनी साथे प्राणो छोडे छे // 443 // - 'जो ते गृहस्थ होय अने परिणामनी विशुद्धिपूर्वक भक्तपरिज्ञानी आराधना करे, तो ते जघन्यथी सौधर्म (प्रथम ) देवलोकमां महर्द्धिक श्रेष्ठ देव थाय छे अने उत्कृष्टथी अच्युत कल्पमां 20 (12 मा देवलोकमां) देव थाय छे / जो ते साधु होय तो जघन्यथी सौधर्म देवलोक अने उत्कृष्टथी निर्वाणसुख अथवा सर्वार्थसिद्ध विमान पामे छे // 444-445 // परिचय जीवने अनादिकाळथी आहार साथे गाढ संबंध छ। एक गतिमाथी बीजी गतिमां वक्रगतिए जाय त्यारे जीव एक-बे के त्रण समय आहार वगर रहे छे; पण ए कांई महत्त्वनुं नथी / आहार 25 एटले संसार एम कहेवू होय तो कही शकाय / संसारथी छूटq होय तो आहारथी छूटवु अनिवार्य छ / ए केवी रीते छूटाय तेनो सुंदर विधि 'भक्तपरिज्ञा'मां समजाव्यो छे। आ पयन्नाना कर्ता परमात्मा श्री महावीरस्वामीना शिष्य श्री वीरभद्रमुनि छ। प्रस्तुतमां नमस्कार संबंधी संदर्भ तारवी प्रकट करेल छ /