________________ 509 विभाग]. नमस्कार स्वाध्याय / मूलुक्खयपडिवक्खा अमूढलक्खा सजोगिपञ्चक्खा / साहाविअत्तसुक्खा सिद्धा सरणं परममुक्खा // 26 // 18 // पडिपिल्लिअपडिणीया समग्गझाणग्गिदड्ड भवबीआ। जोईसरसरणीया सिद्धा सरणं सु(स )मरणीया // 27 // 19 // पावियपरमाणंदा गुणनीसंदा विदिन्नभवकंदा। लहुईकयरविचंदा सिद्धा सरणं खविअदंदा // 28 // 20 // . उवलद्धपरमबंभा दुल्लहलंभा विमुक्कसंरंभा / भुवणघरधरणखंभा सिद्धा सरणं निरारंभा // 29 // 21 // सिद्धसरणेण नयबंभहेऊसाहुगुणजणिअअणुराओ / मेइणिमिलंतसुपसत्थमत्थओ तत्थिमं भणइ // 30 // 22 // जिअलोअबंधुणो कुगइसिंधुणो पारगा महाभागा / नाणाइएहिं सिवसुक्खसाहगा साहुणो सरणं // 31 // 23 // __जेमणे कर्मरूप भावशत्रुओनुं मूळथी उन्मूलन कयुं छे, जेओ अमूढलक्ष्य-सदा उपयोगशील के. वळी जेओना स्वरूपनो प्रत्यक्ष अनभव सयोगी केवलजानीओ ज फक्त करी शके छे अने जेमणे स्वाभाविक सुख प्राप्त कयुं छे ते परममुक्त एवा श्रीसिद्धभगवंतो मने शरण हो // 26 // 18 // 15 जेमणे रागद्वेष रुप अंतरंग शत्रुओने जीत्या छे, जेमणे शुक्लध्यान रूप अग्निथी भवबीज (ज्ञानावरणीयादि कर्म) ने बाळी नाख्युं छे, जेओ योगीश्वरो( गणधरादि )ना पण शरणीय छे अने जेओ मुमुक्षुओना ध्येय छे, एवा श्री सिद्धभगवंतो मने शरण हो // 27 // 19 // परम आनंदने प्राप्त थयेला, सकलगुणोना निःस्यन्द-साररूप, विदारित कर्यो छे संसारनो (मोहनीय कर्मरूप ) कंद जेमणे एवा अने लोकालोकप्रकाशक श्री केवलज्ञान रूप प्रकाशना कारणे 20 सूर्यचंद्रने पण अल्पप्रभाववाळा करनारा तथा क्षपित कर्यां छे राग-द्वेष वगेरे द्वंद्वो एवा श्री सिद्धभगवंतो मने शरण हो // 28 // 20 // __ परमब्रह्मरूप केवलज्ञानने पामेला, वळी जगतमा सौथी दुर्लभ गणाता मुक्तिपदरूप लाभने प्राप्त थयेला. सर्व प्रयोजनो निष्पन्न थवाना कारणे समारंभथी रहित. पोताने शरणे आवेला दर्गतिमां पडता जीवो माटे स्थिर आधार रूप होवाथी जीवलोकरूप घरना आधारभूत स्तंभसमा-तथा 25 कृतकृत्य होवाथी कोईपण प्रकारना आरंभथी रहित एवा श्री सिद्ध भगवंतो मने शरण हो // 29 // 21 // . श्री साधु भगवंतोनुं शरण. आ मुजब भक्तिपूर्वकना श्रीसिद्धभगवंतोना शरणना योगे नैगमादि नयोथी उपलक्षित जे ब्रह्म-श्रुतज्ञान तेना कारण जे विनयादि साधु गुणो, तेमना प्रत्ये उत्पन्न कर्यो छे अनुराग जेणे एवो ते भक्तिथी नमवाना कारणे प्रशस्त बनेला पोताना मस्तकने धरणीपर मूकीने आ रीतिए 30 कहे छे // 30 // 22 // ... षड्जीवनिकायरूप जीवलोकना साचा बंधु, कुगतिरूप महासमुद्रना तीरे रहेला, अनेक लब्धिओथी संपन्न होवाना कारणे महाभाग, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रयीनी आराधनाना योगे मोक्षना सुखने साधनारा, श्री साधु भगवंतो मने शरण हो // 31 // 23 // . .