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________________ चैत्यवंदनमहाभाष्ये नमस्कारसूत्रस्य उल्लेखः / [प्राकृत तच्चानेकविधत्वमेवं भगवत्यादावुक्तं ___'अरहोन्तयः' अविद्यमान रह:- एकान्तरूपो देशोऽन्तश्च- मध्यं गिरिगुहादीनां सर्ववेदितया समस्तवस्तुस्तोमगतप्रच्छन्नत्वस्याभावेन येषां ते अरहोऽन्तरस्तेभ्यः, यदाह " नत्थि व रहो य छन्नं, अंतो मज्झं च सयलवत्थूणं / पर-अवरभागवेइत्तणेण जेसिं ति अरहंता // " अथवा अत्यर्थ राजन्ते समवसरणादिबहिर्लक्ष्म्या सज्ज्ञानाद्यान्तरलक्ष्म्या वा, रान्ति सद्दर्शनादि, घ्नन्ति च मोहादीन् ,गच्छन्ति वा तदुपकृत्यै ग्रामानुग्रामं तन्वन्ति च धर्मदेशनां, तायन्ते तारयन्ति वा सर्वजीवानिति निरुक्तिवशादरहन्तास्तेभ्यः, अथवा अरहयद्भ्यः प्रकृष्टरागादिहेतुभूतमनोज्ञेतरविषयसंपर्केऽपि क्वचिदप्यासक्तिमगच्छद्भयः क्षीणरागत्वात्, यद्वा अरहयद्भयः सिद्धिगतावप्यनन्तज्ञानमयत्वाद् 10 आत्मस्वभावमत्यजद्भ्यः ‘रह त्यागे' इति वचनात् , अनेकार्थत्वाद् वा धातूनामवस्थित्यर्थे, आ अनेक रीते जे व्याख्या करवामां आवे छे ते भगवती( सूत्रनी वृत्ति) वगेरेमां नीचे मुजब जणावेली छे : ''अथवा अहीं 'अरहताणं' नो 'अरहोन्तर्व्यः' एवो अर्थ पण नीकळे छ / 'रहः' एटले एकान्तरूप गुप्त प्रदेश अने 'अंतर' एटले पर्वतनी गुफा वगेरेनो मध्यभाग / भगवान सर्वज्ञ 15 होवाने लीधे जगतनी सर्व वस्तुओ पैकी कोईपण वस्तु एमनाथी गुप्त होती नथी, तेथी भगवानने 'रहः' तथा 'अंतर्' न होवाथी भगवान 'अरहोन्तर' कहेवाय छे / आवा 'अरहोन्तर्' ( अरहंत) भगवानने नमस्कार हो / " कहुं छे के–“जेमने कशुं छानुं नथी तेमज समग्र वस्तुओना पर-अपर भागोने जाणता होवाने लीधे जेमने कई मध्य नथी तेओ 'अरहंत' कहेवाय छ / " अथवा समवसरण आदि बहारनी शोभाथी तेमज साचा ज्ञानरूप आंतरिक शोभाथी जेओ 20 अत्यंत शोभे छे तथा मोह वगेरेने जेओ हणे छे तेओ 'अरहंत' कहेवाय छे / अथवा जेओ सर्व जीवोना उपकारने माटे एक गामथी बीजे गाम विचरे छे, धर्मदेशना आपे छे, सर्व जीवोनुं रक्षण करे छे तथा तेमने तारे छे तेओ 'अरहंत' कहेवाय छे / अथवा मोक्षमां गया पछी पण अनंत ज्ञानमय होवाने लीधे पोताना आत्मस्वभावने नहीं त्यजता तेवा अरहंत भगवंतोने नमस्कार हो / अथवा 'अरहताणं' नो अहीं 'अरयङ्ग्यः' एवो अर्थ समजवो / अर्थात् रागनो क्षय 25 थयो होवाथी प्रकृष्ट राग तथा द्वेषना कारणभूत अनुक्रमे मनोहर के अमनोहर विषयनो संपर्क थवा छतां पण कोईपण पदार्थ उपर आसक्ति नहीं पामता एवा अरहंत भगवंतोने मारो नमस्कार हो / अथवा 'रह्' धातुनो 'त्याग' एवो पण अर्थ थाय छे / एटले मोक्षमां गया पछी पण अनंत ज्ञानमयपणुं तेमने विद्यमान होय छे तेथी आत्मस्वरूपनो त्याग नहीं करता अरहंत भगवंतोने नमस्कार हो / अथवा धातुना अनेक अर्थो थता होवाथी 'रह्' धातुनो 'अवस्थान' एवो अर्थ समजवो / 1 जुओ प्रस्तुत ग्रंथ पृ॰ 2, पं. 13 थी पृ. 3, पं. 22 /
SR No.004340
Book TitleNamaskar Swadhyay Prakrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vardhak Sabha
Publication Year1961
Total Pages592
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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