________________ 228 ध्यानविचारः। [प्राकृत नादः-द्रव्यतो बुभुक्षातुराणामङ्गुलीस्थगितकर्णानां सुसूत्कारः; भावतः स्वशरीरोत्थ एव तूर्यनिर्घोष इव स्वयं श्रूयते // 11 // परमनादः-पृथग्वाद्यमानवादित्रशब्दा इव विभिन्ना व्यक्ताः श्रूयन्ते // 12 // तारा-द्रव्यतो विवाहादौ वधू-वरयोस्तारामेलकः; भावतः कायोत्सर्गव्यवस्थितस्य 5 निश्चला दृष्टिः // 13 // परमतारा-द्वादश्यां प्रतिमायामिवानिमेषा शुष्कपुद्गलन्यस्ता दृष्टिः / / 14 // लयः-वज्रलेपादिद्रव्येण संश्लेषो द्रव्यतः; भावतोऽहंदादिचतुःशरणरूपश्चेतसो निवेशः // 15 // 11. नाद :--भूखथी पीडाता मनुष्यो कानमां आंगळी नाखीने जे सुसकारो करे छे ते 'द्रव्यथी नाद' छे। अने पोताना शरीरमा ज उत्पन्न थयेलो जे निर्घोष (नाद) वाजिंत्रना अवाजनी जेम स्वयं 10 संभळाय छे ते 'भावथी नाद' समजवो। ..12. परमनाद :--जुदां जुदां वागतां वाजिंत्रोना शब्दोनी जेम विभिन्न अने व्यक्त शब्दो संभळाय ते 'परमनाद' कहेवाय छे। 13. तारा:-विवाह आदि प्रसंगमां वधू अने वरनुं जे परस्पर तारामैत्रक-तारामेलक (आंखनी कीकीओनुं मिलन) थाय छे ते 'द्रव्यथी तारा' छ। कायोत्सर्गमा रहेल मनुष्यनी जे निश्चल दृष्टि ते 15 'भावथी तारा' छे। 14. परमतारा:-बारमी प्रतिमानी जेम शुष्क पुद्गल उपर जे अनिमेष दृष्टि स्थापवामां आवे ते 'परमतारा' छे। 15. लयः-वज्रलेप आदि द्रव्यथी वस्तुओनो जे परस्पर गाढ संयोग ते 'द्रव्यथी लय' छे अने अरिहंत, सिद्ध, साधु तथा केवलीप्ररूपित धर्म-आ चारनुं शरण अंगीकार करवारूप जे चित्तनो 20 निवेश ते 'भावथी लय' छे / 1. विशिष्ट प्रकारना उग्र प्रतिज्ञापालनने-व्रतपालनने-'प्रतिमा' कहेवामां आवे छे। साधुओनी आवी प्रतिमाओ 12 छ। जेमके एकमासिकी, द्विमासिकी, त्रिमासिकी, चातुर्मासिकी, पंचमासिकी, षण्मासिकी, सप्तमासिकी, सप्तरात्रिकी, सप्तरात्रिकी, सप्तरात्रिकी, अहोरात्रिकी, एकरात्रिकी। आ बधी प्रतिमाओनुं स्वरूप आवश्यक वृत्ति आदि ग्रंथोमा विस्तारथी वर्णवेलुं छे। तेमां 12 मी प्रतिमामां अट्ठम करीने गाम बहार जईने अनिमेष नयने एक दृष्टि स्थापीने काउस्सग्ग 25 ध्यानमां उभा रहेवार्नु होय छे। 2. मंदिर मकान आदि अधिक मजबूत करवाने माटे प्राचीन जमानामां भीत आदिनी उपर जे लेप करवामां आवतो हतो, ते बृहत्संहितामा वज्रलेपना नामथी नीचे प्रमाणे प्रसिद्ध छ : - आमं तिन्दुकमाम कपित्थकं पुष्पमपि च शाल्मल्याः। बीजानि शल्लकीनां धन्वनवल्को वचा चेति // 1 // . एतैः सलिलद्रोणः क्वाथयितव्योऽष्ट भागशेषश्च / अवतार्योऽस्य च कल्को द्रव्यैरेतैः समनुयोज्यः // 2 // श्रीवासक-रस-गुग्गुलु-भल्लातक-कुन्दुरूक-सजेरसैः / अतसी-बिल्वैश्च युतः कल्कोऽयं वज्रलेपाख्यः // 3 // प्रासादहऱ्यावलभी-लिङ्गप्रतिमासु कुड्यकूपेषु सन्तप्तो दातव्यो वर्षसहस्रायुतस्थायी // 4 // अर्थः-काचा टीबरु, काचा कोठां, शिमळाना फूल, सारफळ (सालेडो, धूपेडो) ना बीज, धामण, वृक्षनी छाल अने घोडा वज-ए औषधो बराबर सरखा वजन प्रमाणे लइ, पछी तेने एक द्रोण अर्थात् 256 तल=१०२४ तोला पाणीमा नाखीने उकाळो करवो। ज्यारे पाणीनो आठमो भाग रहे त्यारे नीचे उतारी, तेमां सुरूवृक्षोनो गुंदर (बेरजो) हीराबोळ गुगळ, भीलामा, देवदारनो गुंद (कुंदरु), राळ, अळशी, अने बीलीफळ ए औषधोनु चूर्ण नाखवू जेथी वज्रलेप तैयार थाय छे। // 1-2-3 // 40 उपर कहेल वज्रलेप देवमंदिर, मकान, झरोखा, शिवलिंग, प्रतिमा (मूर्ति), भींत अने कुवा वगेरे ठेकाणे घणो गरम गरम लगावे तो ते मकान आदिनी स्थिति करोड वर्षनी थाय॥४॥ वास्तुसारे परिशिष्ट A पृ. 147