________________ 343 10 15 विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। मण्णसु पियं व भायं व मायरं सामियं गुरुयणं वा / णिय-जीवियं व मण्णह अहवा जीवाओ अहिययरं / / [179-26 ] हिययस्स मज्झ दइओ जारिसओ जिणवरो तिहुवणम्मि / को अण्णो तारिसओ हूँ णायं जिणवरो चेय // [179-27] 'जय सव्व-जीव-बंधव संसार-जलोह-जाण-सारिच्छ / जय जम्म-जरा-वजिय मरण-विमुक्का जयाहि तुमं // [ 242-24] जय पुरिस-सीह जय जय तेलोककल्ल-पत्थिय-पयाव / जय मोह-महामूरण रण-णिजिय-कम्म-सत्तु-सय // [242-25] जय सिद्धिपुरी-गामिय-जय-जिय-सत्थाह (सत्थार ) जयहि सव्वण्णू / जय सव्वदंसि जिणवर सरणं मह होसु सव्वत्थ / [242-26 ] जय सव्वण्णु महायस जय णाण-दिवायरेक जय-णाह / जय मोक्ख-मग्ग- णायग जय भव-तीरेक बोहित्थ // [ 243-23 ] जय संसार-महोदहि-दुक्ख-सयावत्त-भंगुर-तरंगेहिं / मोक्ख-सुह-तीर-गामिय णमोत्थु णिजामय-सरिच्छ // [91-4] जय सुरासुर-किंणर-णर-णारी-संघ-संथुया भगवं / जय पढम-धम्म-देसि(स)य सिय-झाणुप्पण्ण-णाणवरा // [ 116-14] ते श्रीजिनेश्वर भगवंतने तमे पिता, माता, भाई, स्वामी, गुरुजन के पोतानुं जीवन मानो अथवा पोताना जीवथी पण अधिक मानो // [179-26 ] मारा हृदयने वल्लभ जेवा श्रीजिनेश्वर भगवंत छे तेवं त्रणे लोकमां बीजु कोण छे ? . हा ! खरेखर में जाण्युं के तेवा केवळ श्रीजिनेश्वर भगवंत ज छे / [179-27 ] 20 . सर्व जीवना बंधु, संसारसमुद्रमां नौका समान एवा आप जयवंता व” / जन्म-जराथी रहित अने मरणथी विमुक्त एवा आप जयवंता वर्तो // [242-24] पुरुषसिंह, त्रण लोकमां प्रसरेला अद्वितीय प्रतापने धरनार, मोहनो अत्यंत नाश करनार अने रणमां सेंकडो कर्मशत्रुओने जीतनार आप जयवंता वर्तो // [242-25] सिद्धिपुरीमा जनारा जगतना जीवोना सार्थवाह जय पामो / हे सर्वज्ञ ! विजय पामो, हे 25 सर्वदर्शी ! जयवंता रहो / हे श्रीजिनेश्वर! मने सर्वत्र शरणरूप हो / [242-26 ] सर्वज्ञ, महायश जय पामो। हे अद्वितीय ज्ञानदिवाकर, जगतना नाथ विजय पामो / मोक्षमार्गना नायक अने भवतीरने प्राप्त कराववा निरुपम वहाणरूप आप जयवंता वर्तो // [243-23] संसारसमुद्रना दुःखरूप सेंकडो आवर्तोना चंचळ तरंगोमांथी मोक्षरूप सुखमय कांठे : जनारा अने पहोंचाडनारा आप जयवंता वर्तो / तेथी निर्यामक समान (हे भगवंत!) आप 30 जयवंता वर्तो // [91-4] सुर, असुर, किन्नर, नर अने नारीना समुदाय वडे स्तुति कराएला हे भगवन् ! आप * जयवंता वर्तो। धर्मना आद्य उपदेशक आप जय पामो / शुक्लध्यानथी केवळज्ञान प्राप्त करनारा (हे भगवन् ! ) आप जयवंता वर्तो // [116-14]