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________________ 128 [प्राकृत णमोक्कारणिज्जुत्ती। अडविं सपच्चवायं वोलित्ता देसिओवएसेणं / पावंति जहिट्ठपुरं भवाडविपी तहा जीवा // 19 // 905 // पावंति निव्वुइपुरं जिणोवइटेण चेव मग्गेणं / अडवीइ देसिअत्तं एवं ने जिणिंदाणं // 20 // 906 // जह तमिह सत्थवाहं नमइ जणो तं पुरं तु गंतुमणो / परमुवगारित्तणओ निविग्घत्थं च भत्तीए // 21 // 907 // अरिहो हु नमुक्कारस्स भावओ खीणरागमयमोहो / मुक्खत्थीणं पि जिणो तहेव जम्हा अओ अरिहा // 22 // 908 // संसाराअडवीए मिच्छत्तऽनाणमोहिअपहाए। जेहिं कय(य) देसिअत्तं ते अरिहंते पणिवयामि // 23 // 909 // सम्मइंसणदिट्ठो नाणेण य सुट्ट तेहिं उवलद्धो / चरण-करणेण पहओ निव्वाणपहो जिणिंदेहिं // 24 // 910 // ( 'मार्गदेशक' आदि प्रत्येक गुणोना अवयवार्थ जणावे छे-) श०--मार्ग बतावनारना उपदेशयी अनेक विघ्नोवाळी अटवीने ओळंगीने जेम जीवो पोताने 15 इष्ट एवा नगरमां पहोंचे छे तेम जिनेश्वरोए उपदेशेला मार्गथी ज जीवो भवरूप अटवीने ओळंगीने निवृतिपुरमोक्षपुरमां पहोंचे छे। ए रीते श्री जिनेश्वरोनुं संसाररूप अटवीमां मार्गदेशकपणुं ,जाणवू / 19, (905); 20, (906) श-जेम ते ते नगर प्रति जवानी इच्छावाळो माणस ते सार्थवाहने परम उपकारीपणाना कारणे अने निर्विघ्नताना अर्थे भक्तिपूर्वक नमे छे तेम मोक्षार्थीओ माटे पण क्षीण थया छे राग, द्वेष अने मोह 20 जेमना एवा श्री जिनेश्वर भगवान भावसहित नमस्कारने योग्य छे / भाव नमस्कारने योग्य होवाथी ज तेओ अरिहंत छ। 21-22, (907-908) श०-( तेथी ) मिथ्यात्व अने अज्ञानथी मोहित बनेला पंथवाळी संसाररूप अटवीमां जेमणे उपदेशकपणुं कर्यु छे ते अरिहंतोने हुं नमस्कार करुं छु / 23, (909) श०--श्रीजिनेश्वर भगवंतोए सम्यग्(केवल)दर्शनथी जोयेलो (केवल)ज्ञानथी सारी रीते जाणेलो 25 अने सम्यक् चरण-करण वडे सेवेलो एवो निर्वाणमार्ग छे / 24, (910) 1. पांच व्रतो, दशविध श्रमणधर्म, सत्तर प्रकारनो संयम, दश प्रकारचें वेयावच्च, नव प्रकारनी ब्रह्मचर्यनी गुप्ति, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, बार प्रकारचें तप, चार प्रकारना क्रोधनो निग्रह ए चरण-चारित्र छ। 2. चार प्रकारे पिंडविशुद्धि, पांच प्रकारनी समिति, बार प्रकारनी भावना, बार प्रकारनी प्रतिमा अने पांच प्रकारनो इंद्रियनिरोध, पचीश प्रकारे पडिलेहण, त्रण प्रकारनी गुप्तिओ, चार प्रकारे अभिग्रहो ए करण-चारित्र छ /
SR No.004340
Book TitleNamaskar Swadhyay Prakrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vardhak Sabha
Publication Year1961
Total Pages592
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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