________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय। 360(3) इय वियलिय-णव-जोव्वण-सत्तिल्ला संजमम्मि असमत्था / पच्छायाव-परद्धा पुरिसा झिजति चिंतेंता // [214-5] जइ तइया विरमंतो सम्मत्त-महादुमस्स पारोहे / अज-दियहम्मि होतो सत्थे परमत्थ-भंगिल्लो // [214-6 ] जइ तइया विरमंतो सुय-णाण-महोयहिस्स तीरम्मि / उच्चेंतो अज-दिणं भव्वाइँ ? य सेस-रयणाई // [214-7] जइ तइया विरमंतो आरूढो जिण-चरित्त-पोयम्मि। . संसार-महाजलहिं हेलाए चेय तीरंतो // [214-8 ] जइ तइया विरमंतो तव-भंडायार-पूरियप्पाणो। अज्ज-दिणं राया हं मुणीण होतो ण संदेहो // [ 214-9] 10 जइ तइया विरमंतो वय-रयण गुणेहिँ वड्डिय-पयावो / रयणाहिवो त्ति पुजो होतो सव्वाण वि मुणीणं // [214-10] जइ तइया विरमंतो रज-महा-पाव-संचय-विहीणो। झत्ति खवेतो पावं तव-संजमिओ अणंतं पि॥ [214-11] आ रीते नवयौवन अने शक्तिथी रहित थयेला, संयममां असमर्थ, (केवल ) पश्चात्तापने 15 पराधीन आत्माओ चिंता करता ( विचारमा ने विचारमा) क्षीण थाय छे // [214-5] ज्यारे सम्यक्त्व महावृक्षनो अंकुरो ऊग्यो हतो त्यारे जो (अविरतिथी) अटक्यो होत (अने सर्वविरति लीधी होत ) तो आजे ( आज सुधी) शास्त्रना परमार्थना भेदोनो जाणकार होत // [214-6] __' ज्यारे श्रुतज्ञानरूपी महासमुद्रने कांठे हतो त्यारे जो ( अविरतिथी ) अटक्यो होत 20 (अने सर्वविरति लीधी होत ) तो आजे ( आज सुधी) श्रेष्ठ एवां बीजां रत्नोने एकठां करतो होत // [214-7] जो त्यारे (अविरतिथी ) अटक्यो होत अने श्रीजिनेश्वर भगवानना चारित्ररूपी वहाणमां आरूढ थयो होत तो संसाररूपी महासमुद्रने सहेलाईथी तरी गयो होत // [214-8] ____जो ते समये ( अविरतिथी) अटक्यो होत अने तप (आदि गुणो)ना खजानाथी 25 आत्माने भरपूर बनाव्यो होत तो आजे (आज सुधी) हुं मुनिओनो राजा होत, एमां संदेह नथी / [214-9] ____ जो ते समये ( अविरतिथी) अटक्यो होत तो हुं सुंदर व्रत अने गुणोथी वधेला प्रतापवाळो होत अने रत्नाधिक (रत्नाधिप ) तरीके सर्व मुनिओने पूज्य होत // [214-10] जो ते वखते राज्यना महा पापना संचयथी रहित बनी (अविरतिथी) विरम्यो होत (सर्वविरति 30 लीधी होत ) तो तप अने संयमवाळा में अनंता पापने शीघ्र खपाव्यां होत // [214-11]