________________ णमोक्कारणिज्जुत्ती। [प्राकृत बारसंगो जिणक्खाओ सज्झाओ कहिओ बुहेहिं / तं उवइसंति जम्हा उवझाया तेण वुचंति // 115 // 1001 // उ ति उवओगकरणे ज्झ त्ति अ झाणस्स होइ निदेसे / एएण हुँति उज्झा एसो अनोवि पजाओ // 116 // 1002 // उ त्ति उवओगकरणे व ति अ पावपरिवजणे होइ। झ त्ति अ झाणस्स कए उ ति अ ओसक्कणा कम्मे // 117 // 1003 // उवज्झायनमुक्कारो जीवं मोएइ भवसहस्साओ / भावेण कीरमणो होइ पुणो बोहिलाभाए // 118 // 1004 // उवज्झायनमुक्कारो धन्नाण भवक्खयं कुणंताणं / हिअयं अणुम्मुअंतो विसुत्तियावारओ होइ // 119 // 1005 // (भाव उपाध्यायन प्रतिपादन करे छे-) श०-जिनेश्वरोए प्ररूपेल द्वादशांगीने गणधर आदि पुरुषो स्वाध्याय कहे छे। एवा स्वाध्यायनो शिष्योने ( सूत्रथी) उपदेश आपे छे तेथी ते 'भाव उपाध्याय' कहेवाय छे / (115) वि०-जिनेश्वरोए द्वादशांगने आचारांग वगेरे भेदोथी रचेला छे। ते स्वाध्याय अहीं 15 सूत्ररूपे ज ग्रहण करवो / ते सूत्ररूप द्वादशांग गणधरोए रचेलो छ। ए स्वाध्यायनो जेओ उपदेश करे छे ते कारणथी ते 'उपाध्याय' कहेवाय छे / कारण के जेमनी पासे जईने अध्ययन-भणाय ते 'उपाध्याय' कहेवाय छ। 115, (1001) (हवे आगमशैलीए अक्षरार्थने अवलंबीने उपाध्यायनो शब्दार्थ कहे छे-) श–'उ' एटले उपयोग करवो, अने 'ज्झा' एटले ध्यान कर / आथी उज्झा अर्थात् 20 उपयोगपूर्वक ध्यान करनार एवो एनो बीजो पर्याय-नाम छ / 116, (1002 ) श०-'उ' एटले उपयोग करवो, 'व' एटले पापर्नु वर्जन, 'झ' एटले ध्यान करवू अने 'उ' एटले कर्मो दूर करवां अर्थात् उपयोगपूर्वक पापने छोडतां ध्यान आरूढ थईने कर्मोने दूर करे ते 'उपाध्याय' कहेवाय / (आ अक्षरार्थ छे, अक्षरार्थना अभावे पदार्थना अभावनो प्रसंग आवे / पद ए समुदाय रूप होवाथी अहीं अक्षरार्थ समजवो।) 117, (1003) __ (उपसंहार करतां कहे छे-) श०-उपाध्यायने करेलो नमस्कार, जो ते भावथी (हृदयपूर्वक ) करेलो होय तो ते हजारो भवथी छोडावे छे अने ते नमस्कार अंते बोधिबीज-सम्यक्त्व आपनारो बने छ। 118,(1004) श०-भवनो क्षय करवा इच्छता जे धन्य मनुष्यो, पोताना हृदयमा उपाध्यायने नमस्कार करवानुं छोडता नथी, तेमना दुर्ध्यान, निवारण तो ते जरूर करे ज छ / 119, (1005)