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________________ 74 चैत्यवंदनमहाभाष्ये नमस्कारसूत्रस्य उल्लेखः / [प्राकृत अडविं सपच्चवायं, वोलित्ता देसिओवएसेणं / पावेंति जहिट्ठपुरं भवाडविं पी तहा जीवा // . पावेंति निव्वुइपुरं, जिणोवइटेण चेव मग्गेणं / अडवीइ देसियत्तं, एवं नेयं जिणिंदाणं // जह तमिह सत्थवाहं, नमइ जणो तं पुरं तु गंतुमणो / परमुवगारित्तणओ, निविग्वत्थं च भत्तीए // अरिहो उ नमुक्वारस्स भावओ खीणरागमयमोहो। मुक्खत्थीणं पि जिणो, तहेव जम्हा अओ अरिहा // 5 संसारअडवीए, मिच्छत्तऽन्नाणमोहिअपहाए / जेहि कयं देसिअत्तं, ते अरिहंते पणिवयामि // सम्मइंसणदिट्ठो, नाणेण य तेहिं सुट्ठ उवलद्धो / चरणकरणेण पहओ, निव्वाणपहो जिणिंदेहिं॥ सिद्धिवसहिमुवगया, निव्वाणसुहं च ते अणुप्पत्ता / सासयमव्वाबाहं, पत्ता अयरामरं ठाणं // पाविंति जहा पारं सम्मं निजामया समुद्दस्स / भवजलहिस्स जिणिंदा, तहेव जम्हा अओ अरिहा // मिच्छत्तकालियावायविरहिए सम्मत्तगज्जभपवाए / एगसमएण पत्ता, सिद्धिवसहिपट्टणं पोआ // 10 निजामगरयणाणं, अमूढनाणमइकण्णधाराणं / वंदामि विणयपणओ, तिविहेण तिदंडविरयाणं // अनेक विघ्नोवाळी अटवीने ओळंगवामां साचा मार्गनो उपदेश करवाथी जेम जीवो पोताने इष्ट एवा नगरमां पहोंचे छे तेम भवरूप अटवीमांथी पण मुक्तिरूप नगरीमा पहोंचे छ / जिनेश्वरोए उपदेशेला मार्गथी जीवो निर्वृत्तिपुर-मोक्षपुरमा पहोंचे छ / आथी जिनेश्वरो संसाररूप अटवीमां उपदेशकरूप छे, एम समजाय छे / 15 जेवी रीते ( कोई ) सार्थवाह ते ते नगरमा जवानी इच्छावाळा मनुष्योने मार्ग बताववाना कारणे ते मनुष्यो सार्थवाहने भक्तिपूर्वक नमे छे तेम राग, द्वेष अने मोह जेना नष्ट थई गया छे एवा जिनेश्वर भगवान पण मोक्षार्थीओने निर्विघ्नपणे मोक्षमार्गे लई जवाना कारणे भावथी नमस्कारने योग्य छे / ए ज कारणे तेओ अर्हत्-अरिहंत कहेवाय छे। ( तेथी) मिथ्यात्व अने अज्ञानथी मोहित बनेल पंथवाळी संसाररूप अटवीमां जेमणे 20 उपदेशकपणुं कयु छे ते अरिहंतोने हुं नमस्कार करूं छु। ___ श्रीजिनेश्वर भगवंतोए सम्यग्दर्शनथी जोयेलो, ज्ञानथी सारी रीते जाणेलो अने चरणकरण वडे सेवेलो एवो निर्वाणमार्ग छे / . सिद्धिवसतिए पहोंचीने तेमणे (जिनेश्वरोए) जे शाश्वत बाधा-पीडा रहित, अजर अने अमर स्थान छे तेवा निर्वाणसुखने प्राप्त कर्यु छ / के समुद्रमा वहाणना निर्यामको एटले कर्णधारो सारी रीते पार पहोंचाडे छे ते रीते जिनेश्वरो पण भवरूप समुद्रनी पार पहोंचाडे छे तेथी तेओ अरिहंत-नमस्कारने योग्य छे, एम कहेवाय छ / ___ समुद्रमा जेम कालिकावात न होय पण गर्जभनो अनुकूळ वायु होय तो कुशळ कर्णधारो साथेनु, छिद्र विनानुं वहाण इच्छित नगरे पहोंचे छे तेम मिथ्यात्वरूप कालिकावातथी रहित अने सम्यक्त्वरूप गर्जभ वायुनी अनुकूळताथी एक ज समयमां वहाणो सिद्धिवसतिरूप नगरने पहोंचे छ / 30 यथार्थ ज्ञान अने मति ए ज जेमना कर्णधार स्वरूप छे अने जेओ त्रिदंड (मन, वचन अने कायाना दंड )थी रहित छे एवा निर्यामकरत्नस्वरूप अरिहंतोने त्रण प्रकारे (मन, वचन अने कायाथी ) विनयथी नमीने वंदन करूं छु /
SR No.004340
Book TitleNamaskar Swadhyay Prakrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vardhak Sabha
Publication Year1961
Total Pages592
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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