________________ . . 432 सिरिगणिविजाथुत्तं / [प्राकृत विहिधारणा-समाही-मंडल-मुद्दासणं च एयस्स। . जो नाहि तस्स जए म ठाइ संवट्टमहो तस्स // 35 // असई-कुसील-निह्नव-गब्भपरिस्सावि-गुरुवहणहत्थे / परदारियपाउत्ते सिजासंथारसंघट्टे // 36 // एएसिं पंचमहापावकम्मकारीण संगम दरं / वजित्तु झायमंतं सव्वभयपणासणं कुणइ // 37 // पज्झरइ चंदकंती अमयं कलसो सु(मु)हेण पल्ह(स)त्यो / झचऊवसन्हाओ (?) तेणाहं जाव पिच्छामि // 38 // खीरसमुद्दे धवलं जोयणपरिमंडलं महापउमं / / आरूढो तत्थाहं गुरुवएसप्पभावेणं // 39 // अद्वमहारिद्धीओ हिरि-सिरि-लच्छि-कंति-बुद्धीओ। जय-विजया य जयंती विअरइ अपराजिया वि तहिं // 40 // झाएमि महाइसयं सव्वभयपणासणं महामंतं / / पसमाहाण सु(मु)हो पउमासण-जोगमुद्दाए // 41 // "ॐ नमोत्थु भयवओ सप्परिवाराण भुवणनाहाण। जेसिं संथवणेणं धम्मज्झाणं थिरं होइ // 42 // " जे आ (विद्या )नां विधि, धारणा, समाधि, मण्डल, मुद्रा अने आसनने जाणे छे तेना मुखने बंद करनार (तेने वादादिमा पराजित करनार) आ जगतमां कोई रहेतो नथी (2) // 35 // ___ अनेकवार कुशीलसेवी, निह्नव, गर्भपात करनार, स्वहस्ते गुरुजननो वध करनार अने 20 परदाराए वापरेल शय्या संथारादिनो संघट्ट करनार (परदारासेवी ? )- // 36 // _ आ पांच महापापकर्म करनाराओना समागमने दूरथी वर्जीने ध्यान कराती आ विद्या सर्व भयनो नाश करे छे // 37 // ___ आ ध्यानना प्रभावथी हुं जेमांथी चंद्र जेवी कान्तिवालु अमृत झरी रडुं छे, एवा प्रशस्त कळशने जोउं छु (?) // 38 // 25 पछी, क्षीरसमुद्रमा एक योजनना घेरावावाळु एक श्वेत महापद्म हुं जोउं छं अने तेनी उपर श्रीसद्गुरुना उपदेशना प्रभावथी हुँ आरूढ थयो कुं ( एम चिंत, छं) // 39 // त्यां ही श्री, लक्ष्मी, कांति, बुद्धि, जया, विजया, जयंती अने अपराजिता देवीओ (मने) अष्ट महाऋद्धिओने आपे छे (ए प्रमाणे जोउं छु.)॥४०॥ - त्यां प्रशमना आधान (प्राप्ति )ना सुखवाळो हुं महा अतिशयवाळा अने सर्व भयोनो नाश 30 करनारा महामंत्रनुं पद्मासन अने योगमुद्राए ध्यान करुं छु / / 41 // (ते मन्त्राक्षरो नीचे मुजब छे:-) / "ॐ नमोत्थु भयवओ सप्परिवाराण भुवणनाहाण / जेसिं संथवणेणं धम्मज्झाणं थिरं होइ // 42 // " [अहीं परिवार सहित भुवनना नाथो (?) ने नमस्कार छे, जेओना स्तवनथी. धर्मध्यान 35 स्थिर थाय छे]