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________________ 130 णमोकारणिजुत्ती। [प्राकृत निजामगरयणाणं अमूढनाणमइकण्णधाराणं / वंदामि विणयपणओ तिविहेण तिदंडविरयाणं // 28 // 914 // पालंति जहा गावो गोवा अहि-सावयाइदुग्गेहिं / पउरतणपाणिआणि अ वणाणि पावंति तह चेव // 29 // 915 // जीवनिकाया गावो जं ते पालंति ते महागोवा / मरणाइभया उ जिणा निव्वाणवणं च पावंति // 30 // 916 // तो उवगारित्तणओ नमोरिहा भविअजीवलोगस / सव्वस्सेह जिणिंदा लोगुत्तमभावओ तह य // 31 // 917 // श०-यथार्थ ज्ञान अने मति ए ज जेमना कर्णधार स्वरूप छे अने जेओ त्रिदंड (मन, 10वचन अने कायाना दंड )थी रहित छे एवा निर्यामकरत्न स्वरूप अरिहंतोने त्रण प्रकारे (मन, वचन अने कायाथी) विनयथी नमीने वंदन करुं छं / 28, (914) . (त्रीजु द्वार कहे छ-) श-जेम गोवाळियो गायोनुं सर्प, जंगली पशुओ वगेरेना कष्टोथी रक्षण करे छे अने घास तेमज पाणीथी भरेलां जंगलमा लई जाय छे तेम जीवसमूहरूप गायोनु मरण वगेरे भयोथी 15 जिनेश्वरो रक्षण करे छे अने तेमने निर्वाणस्वरूप वनमां लई जाय छे / ए रीते जिनेश्वरो सर्व भव्य जीवलोकनो उपकार करता होवाथी लोकोत्तम पुरुषनी भावनाथी नमस्कारने योग्य छ / 29-31, (915-917) (बीजा प्रकारे अरिहंतना नमस्कारनी योग्यताना कारणरूप गुणो कहें छे-) श-राग, द्वेष, कषाय, पांच इंद्रियो', परीषह अने उपसर्गोने नमावे ते नमस्कारने 20 योग्य छे / ( 32 ) वि०-स्वीकारेला धर्ममार्गमां टकी रहेवा अने कर्मबंधनोने खंखेरी नाखवा माटे जे जे स्थिति समभावपूर्वक सहन करवी घटे छे ते 'परीषह' कहेवाय छ। जो के परीषहो ओछावत्ता गणावी शकाय छतां त्यागने विकसाववा माटे जे खास आवश्यक छे ते बावीश परीषहो शास्त्रमा गणावेला छे / एवा परीषहोने जे नमावे ते अंरिहंत छ / 1. क्रोध, मान, माया अने लोभ ए चार कषाय कहेवाय छ। 2. (1) श्रोत्र (कान), (2) चक्षु (3) घ्राण (नासिका ), (4) रसना (जीभ), (5) स्पर्श (त्वक् ) आ पांच इंद्रियो कहेवाय छे / / 3. बावीश परीषहोने नीचे प्रकाणे सहन करीने जीती लेवाना होय छे-(१-२) गमेतेवी क्षुधा अने तृषानी वेदना छता स्वीकारेली मर्यादा विरुद्ध आहार-पाणी न लेतां समभावपूर्वक एवी वेदनाओ अनुक्रमे 'क्षुधापरीषह अने 'पिपासापरीषह'मां सहन करवानी होय छे। (3-4) गमे तेवी टाढ अने गरमीनी मुश्केली छतां तेने दूर करवा अकल्प्य-न खपे तेवी कोई पण वस्तुनुं सेवन कर्या विना ज ए वेदनाओ अनुक्रमे 'शीतपरीषह' अने 'ऊष्णपरीषह'मां सहन / करवानी होय छे। (5) डांस, मच्छर, वगेरे जंतुओना आवी पडेल उपद्रवमा खिन्न न थतां तेने समभावपूर्वक सही लेवाथी 'दंशमशकपरीषह' जिताय छे / (6) नग्नपणाने एटले सर्वथा वस्त्र न मळे अगर जीर्णप्रायः मळे तो पण समभाव
SR No.004340
Book TitleNamaskar Swadhyay Prakrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vardhak Sabha
Publication Year1961
Total Pages592
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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