________________ विभाग] नमस्कार स्वाध्याय / 131 रागद्दोसकसाए इंदियाणि अ पंच वि परीसहे / उवस्सग्गे नामयंता नमोरिहा तेण वुचंति // 32 // 918 // इंदियविसयकसाए परीसहे वेयणा उवस्सग्गे / एए अरिणो हंता अरिहंता तेण उच्चति // 33 // 919 // जे वडे अथवा जेनाथी पीडा थाय ते 'उपसर्ग' कहेवाय छे / ए उपसर्ग चार प्रकारे थाय / छे' / एवा उपसर्गोने जे नमावे ते अरिहंत कहेवाय छे / 32, (918) ... (अरिहंतनी निरुक्ति बतावे छे-) श०-इंद्रिय, विषयकषाय, परीषह, वेदना, उपसर्गो-आ बधा शत्रुओनो नाश करनार जे होय ते अरिहंत कहेवाय छे / (33) वि०-आमों इंद्रिय, विषयकषाय, परीषह, अने उपसर्गोनुं वर्णन आगळनी (918 मी) 10 गाथामां आवी गयुं छे पण वेदना विशे अहीं जणावे छे के, वेदना त्रण प्रकारनी होय छे / पूर्वक सहन करवाथी ते 'नग्नपरीषह' जिताय छे / (7) स्वीकारेल मार्गमां अनेक मुश्केलाओने लीधे कंटाळानो प्रसंग आवे त्यारे कंटाळो न लावतां धैर्य अने स्वस्थतापूर्वक आत्मरमणता करवाथी 'अरतिपरीषह' जिताय छ। (8) साधक पुरुष के स्त्रीए पोतानी साधनामा विजातीय आकर्षणथी न ललचावाथी 'स्त्रीपरोषह जिताय छे। (9) स्वीकारे , जीवनने पुष्ट राखवा असंगपणे जुदा जुदा स्थानोमां विहार करवो अने कोई पण एक स्थानमां नियतवास न स्वीकारवाथी 'चर्यापरीषह' जिताय छे ! (10) साधनाने अनुकूल एकांत जग्यामां मर्यादित वखत माटे आसन बांधी बेसतां आवी पडता भयोने आडोळपणे जीतवा अने आसनथी च्युत न थवाथी 'निषद्यापरीषह' जिताय छ। (11) कोमळ के कठिन ऊंची के नीची जेवी सहज भावे मळे तेवी जग्यामां समभावपूर्वक वसवाथी 'शय्यापरीषह' जिताय छे / (12) कोई आधीने कठोर के अणगमतुं कहे तेने सही लेवाथी 'आक्रोशपरीषह' जिताय छे / (13) कोई ताडनतर्जन करे त्यारे तेने क्षमापूर्वक सहन करवाथी 'वधपरीषह' जिताय छ। (14 ) दीनपणुं के अभिमान राख्या सिवाय मात्र धर्मयात्राना निर्वाह अर्थे याचकवृत्ति स्वीकारवाथी 'याचनापरीषह' जिताय छ। (15) याचना कर्या छतां जोईतुं न मळे त्यारे 'प्राप्ति करतां अप्राप्तिने खरूं तप गणी तेमां संतोष राखवाथी 'अलाभपरीषह जिताय छ। (16) कोई पण रोगमा व्याकुळ न थतां समभावपूर्वक तेने सहन करवाथी 'रोगपरीषह' जिताय छ। (17) संथारामां के अन्यत्र तृण आदिनी तीक्ष्णतानो के कठोरतानो अनुभव थाय त्यारे मृदुशय्यामां रहे तेवो उल्लास राखवाथी ए 'तृणस्पर्शपरीषह' जिताय छ। (18) गमे तेटलो शारीरिक मळ थाय छतां तेमां उद्वेग न पामवो अने स्नान आदि संस्कारोनी इच्छा न करवाथी 'मलपरीषह' जिताय छे। ( 19) गमे तेटलो सत्कार मळ्या छतां तेमां न फुलावाथी अने सत्कार न मळे तो खिन्न न थवाथी 'सत्कारपुरस्कारपरीषह' जिताय छ। (20) प्रज्ञा-चमत्कारी बुद्धि होय तो तेनो गर्व न करवो अने न होय तो खेद न करवाथी 'प्रज्ञापरीषह' जिताय छे / (21) विशिष्ट शास्त्रज्ञानथी गर्वित न थर्बु अने तेना अभावमा आत्मावमानना न राखवाथी 'ज्ञानपरीषह' अथवा 'अज्ञानपरीषह' जिताय छ। (22) सूक्ष्म अने अतींद्रिय पदार्थोनुं दर्शन न थवाथी स्वीकारेल त्याग नकामोभासे त्यारे विवेकी श्रद्धा केळवी ते स्थितिमां प्रसन्न रहेवाथी 'अदर्शनपरीषह' जिताय छ। 4. (1) देवथी, (2) मनुष्यथी, (3) तिर्यचथी अने ( 4 ) आत्मसंवेदनथी उपसर्ग थाय छ / देवो हास्यथी, पूर्वभवना द्वेषथी, विमर्श (परीक्षा करवानो उद्देश ) अने विमात्राथी ( कईक हास्यथी कईक द्वेषथी, कईक विमर्शथी) उपसर्गो करे छे / ए ज प्रमाणे मनुष्यो पण चार प्रकारे उपसर्ग करे छे तेमां चोथो प्रकार कुशीलनी प्रतिसेवा माटे करातो उपसर्ग समजवो / तियचो भयथी, द्वेषथी, आहार माटे, बच्चांओना माळा के गुफाना रक्षण माटे उपसर्ग करे छ; अने आत्मसंवेदनथी ते आखमां पडेला क गां वगेरे खूचपाथी अंगो जकडाई जबाथी, अंगनां खाडा पडवाथी, हाथ वगेरे अंगोने परस्पर मसळवाथी जे पीडा थाय छे ते समजवी /