________________ 10 238 ध्यानविचारः। [प्राकृत / तत्र ज्ञानभावना सूत्रार्थ-तदुभयभेदात् त्रिधा—'नाणे निच्चन्भासो'' इत्यादि // 1 // दर्शनभावना आज्ञारुचि(१)-तत्त्व(९)-परमतत्त्व(२४) रुचिभेदात् त्रिधा-'संकाइदोसरहिओ.'' इत्यादि // 2 // चारित्रभावना सर्वविरत-देशविरत-अविरतभेदात् त्रिधा—'णवकम्माणायणं.' इत्यादि / 5 अविरतेऽप्यनन्तानुबन्धिक्षयोपशमादिजन्य उपशमादिचारित्रांशोऽस्तीति // 3 // वैराग्यभावनाऽनादिभवभ्रमणचिन्तन-विषयवैमुख्य-शरीराशुचिताचिन्तनभेदात् त्रिधा—'सुविइयजगस्सभावो' इत्यादि // 4 // (1) ज्ञानभावना : सूत्र, अर्थ, अने उभय एम त्रण प्रकारे छ। ज्ञानभावनानुं स्वरूप 'ध्या शतक' मां नीचे प्रमाणे जणावेलुं छे : णाणे णिच्चभासो कुणइ मणोधारणं विसुद्धिं च। नाणगुणमुणियसारो तो झाइ सुनिच्चलमईयो // 31 // अर्थ : श्रुतज्ञाननो सदा अभ्यास मनना अशुद्ध व्यापारनो निरोध करीने मनने स्थिर करे छ। अने सूत्र अने अर्थना ज्ञाननी विशुद्धि करे छे। ज्ञान वडे जीव अने अजीवमा रहेला गुणो अने पर्यायोनो . ' जेणे परमार्थ जाणेलो छे एवो पुरुष अत्यंत निश्चल बुद्धिवाळो थईने ध्यान करे छ। 15 (2) दर्शनभावना : आज्ञारुचि, नवतत्त्वनी रुचि. तथा 24 परमतत्त्वोनी रुचि (अर्थात ध्यानना 24 भेदोनी रुचि)-आ रीते त्रण प्रकारे छे / दर्शनभावनानुं स्वरूप 'ध्यानशतक' मां नीचे मुजब छे: संकाइदोसरहिओ पसम-थेजाइगुणगणोवेओ। होइ असंमूढमणो दंसणसुद्धीए झाणम्मि // 32 // अर्थ : शंका आदि दोषथी रहित, तेमज प्रशम अने स्थैर्य वगेरे गुणोथी सहित एवो मनुष्य 20 दर्शनशुद्धिना लीधे ध्यान करती वखते जरा पण मोह पामतो नथी—जरा पण भ्रांतिचित्त थतो नथी / (3) चारित्रभावना : सर्वविरत, देशविरत अने अविरत एम त्रण प्रकारे छ। चारित्रभावनानुं स्वरूप 'ध्यानशतक' मां नीचे मुजब छे : णवकम्माणायाणं पोराणविणिजरं सुभायाणं। चारित्तभावणाए झाणमयत्तेण य समेइ // 33 // 25 अर्थ : ज्ञानावरणीयादि नवा कर्मोने जीव चारित्रभावनाथी ग्रहण करतो नथी। जूना कर्मोने खपावे छे / तेमज ध्यानने पण अनायासे प्राप्त करे छ। प्रश्न : अविरतने पण चारित्रभावनामां शी रीते अहीं गणेल छे ? उत्तर : अविरतमां पण अनंतानुबंधीना क्षयोपशम वगेरेथी उत्पन्न थयेल उपशमादि रूप चारित्रनो अंश होय छे / तेथी तेनो पण अहीं चारित्रभावनामा समावेश करवामां आव्यो छे। . 30 (4) वैराग्यभावना : अनादि भवभ्रमण, चिन्तन, विषयो प्रत्ये विमुखता, तथा शरीरनी अशुचितार्नु चिन्तन ए रीते त्रण प्रकारे छे। वैराग्यभावनानुं स्वरूप 'ध्यानशतक' मां नीचे मुजब छः सुविदियजगस्सभावो निस्संगो निभओ निरासो य। वेरग्गभावियमणो झाणम्मि सुनिच्चलो होइ // 34 // अर्थ : जेणे जगतनो स्वभाव सारी रीते जाणेलो छे, जे निःसंग, निर्भय तेमज आशंसाथी 35 रहित छे तेवो वैराग्यभावित मनवाळो मनुष्य ध्यानमां अत्यंत निश्चळ बने छ। 1. आगमोदयसमिति प्रकाशित ‘आवश्यक हारिभद्रीयवृत्ति'मां पृ. 582 थी पृ. 611 सुधीमां 'ध्यानशतक' छपायेलुं छे। श्री विनय-भक्ति-सुन्दर ग्रंथमाला (वेणप )मां 'ध्यानशतक' अलग पण छपायेलुं छे अने तेमां 'ध्यानशतक' ना कर्ता तरीके श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणने जणाव्या छ /