________________ 323 नमस्कारज्याख्यानटीका। [प्राकृत तं नत्थि जं न इत्थं निमित्त-गह-गणिय-मंत-तंताई। जं पत्थियं पयच्छइ कहेइ जं पुच्छियं सयलं // 25 // व्याख्या-तन्नास्ति यदिह स्तवने न भणितम् / किं तत् ? निमित्तं, ग्रहगणितं, तन्त्र-मन्त्रादिकम् / औषधप्रभावो यथा-औषधादिभिः भयनिवारणं, यथा तरुच्छायायां वल्मीके, देवगृहे श्मशानके। रथ्यायां भुवने कूपे, औषध्यः कार्यकक्षमाः॥१॥ शरीरे धारयेद् यस्तु, विष्णुकान्तां महौषधिम् / मार्गचौरभयं नृणां, स्वप्नेऽपि न जायते // 2 // भृङ्गराजोद्भवं मूलं, पुष्यऋक्षे समुद्धृतम् / वाकुमूले कृतं चैवं, चौरभयनिवारणम् // 3 // हलिनीशिखा कटिस्था स्थगयति कुपितोद्धतं महाव्याघ्रम् / सिंह-सिंही श्वेता स्तम्भयति तथेश्वरी सर्पम् // 4 // शितशिरपुडा जटिका शुभभग्रहीता शिखाग्रविनिविष्टा / सर्पभयं विनिवारयति संशुद्धा साधुभिक्षुरिव // 5 // पुष्येणोत्पाटितं मूलं, चक्राझ्याः समुद्भवम् (?) / हस्ते बद्धं च तं दृष्ट्वा, दूरं गच्छन्ति पन्नगाः // 6 // खजूरीमुखमध्यस्था, कटिबद्धा च केतकी। भुजमध्यस्थितस्तालः, सर्वायुधनिवारकः // 7 // कन्थार्युत्तरमूलं व्यपगतहुङ्कारमौनमाचरतः। वक्त्रगतं शस्त्रभयं योगिन इव न च भवति सिद्धस्य // 8 शाल्मली सहदेवी च, श्वेतगिरिणदीसमी / रासिमीमूलमेतासां, लेपो घातनिवारकः // 9 // नातिगिरि-णदीपुष्पा, बाधो शङ्खभृता तथा / एतासां गुटिका देहे, पश्यतां याति नाशने // 10 // रुद्रजटा तथा मोहा, पुष्ये शिरसि संस्थिता / मोहनं कुरुते नृणां, स्त्रीणां कार्य च सिद्ध्यति // 11 // श्वेते पुनर्नवा मूलं, पीतं तन्दुलकेन हि / / न क्रमते च षण्मासं, सर्प-वृश्चिकयोर्विषम् // 12 // पुष्यार्के गृहीतं तथा नृपसहशिखजारी हस्तगोऽश्रुकन्या, ___जटनररविभीता मोहपानाजवज्रा। कुरु चतुर! चतुष्कं देहजैः पञ्चयुक्तं, वरयुवतिनराणां स्नेहकारि प्रयुक्तम् // 1 // 30 . 163 षोडश-वहन्यनङ्गा नाः। वसु-देशेषु चत्वारों, ग्रह-ष-विचन्द्रमाः // 2 // तिथयोऽङ्के नृपायेषु, पञ्चधा लेपनं स्मृतम् / चतुर्विंशद्भिरडैस्तु, पुण्यार्के सर्वफलप्रदाः // 3 //