________________ 15 सिरिगणिविजाथुत्तं / [प्राकृत एसा विजा कजप्पसाहणकरी तह वसीकरणं / थंभण-मोहण-जोहण-उच्चाडण-मारणाईअं॥५१॥ पढमपए ठकारं मंडलबंधम्मि सोलसपयाई / इक्किक्कपरममंतो गुरूवएसेण जो सरइ // 52 // इंद-महिंद समेण वि जोइजइ तस्स न य मुहं कुवियं / किं पुण माणुसमित्तो जो तक्खणि किंकरो होइ // 53 // वज्झिज खुद्दसिद्धी परलोगविरोहिणीओ पावाओ। संतिय-पुट्ठियकजं मुत्तूण न किंचि कायव्वं // 54 // सयलमणोरहसिद्धीपुन्नसमागमफलं च नियमेण / जो जाणइ उवएसं नमंति देवा वि तं पुरिसं // 55 // - [इति ] गणिविज्जाए द्वितीयं (प्रथमं ) पदम् // आ विद्या कार्य- प्रसाधन करनारी छे, वळी वशीकरण, स्तम्भन, मोहन, योधन, उच्चाटन अने मारण आदि पण करे छे / 51 // प्रथमपद बच्चेनी कर्णिकामा 'ठ' कार अने मण्डलबन्धमां आ विद्याना सोळ पदो चिंतववा, ते एक एक पद परम मंत्र छ / गुरुना उपदेशथी जे आवी रीते स्मरे छे ते इन्द्र अने महेन्द्र जेवाओने पण पोताना कार्यमा जोडी शके छे, ते वखते इन्द्रादिनुं मुख कदीपण कुपित थतुं नथी, (अर्थात् तेओने क्रोध न आवे परंतु हर्षपूर्वक तेओ कार्य करे) तो पछी मनुष्यमात्रनुं तो शुं कहेवू ? ए तो तत्क्षण तेनो किंकर बनी जाय छे / / 52-53 // ___ परलोकनी विरोधी अने पापरूप एवी क्षुद्र सिद्धिओनो त्याग करवो जोईए / शांतिक अने 20 पौष्टिक कर्म सिवाय बीजं कर्म आ विद्याथी करवू न जोईए // 54 // . सकल मनोरथोनी सिद्धि अने पुण्यनो समागम ए जेनुं निश्चित फळ छे एवा आ उपदेशने जे जाणे छे ते पुरुषने देवो पण नमे छे // 55 // परिचय राधनपुरना श्रीलावण्यविजय जैन ज्ञानभंडारमाथी आ स्तोत्रनी बे हस्तलिखित प्रतिओ25 डा. नं. 27, प्रति नं. 1257 अने प्रति नं. 1258 मळी हती। एक प्रति बीजी प्रतिना उतारारूप होवाथी तेमां कोई पाठभेद मळ्यो नथी / नमस्कारमंत्रनुं ध्यान करवा पहेलां शुं करवानी जरूरत छे ए विशे आ स्तोत्र सारो ख्याल आपे छ / आमां नमस्कारमंत्र अंगे 'उपदेश' अने 'अभ्यास' माटे खास भारपूर्वक कहेवामां आव्यु छे अने तेनों महिमा पण बताववामां आव्यो छे; पछी 'गणिविद्या' नु वर्णन अने महिमा बतान्यो छे / 30 खलं जोतां प्रत्येक विद्या अने मंत्र नमस्कारपूर्वक गणवामां आवे तो फळे छे, तेम आ 'गणिविद्या' पण छे अने तेम करवाथी फळदायक बने छे। आ स्तोत्रना कर्ता विशे माहिती मळती नथी।