________________ 108 वद्धमाणविजाविही। [मा इति देवतावसरे नित्यकृत्यं वाचनाचार्योपाध्याययोः // यदा वर्धमानविद्याजापप्रारम्भो विधीयते तदा- 'इमं विजं पउंजामि सिज्झउ मे पसिज्मउ / ' इति प्राक् सर्यते / जापः सफलीभवति सर्वः / सावित्रीमूलस्थापिताङ्गुष्ठाञ्जलिरावाहनी // 1 // सैवाधोमुखी स्थापनी // 2 // ऊर्धाङ्गुष्ठे मुष्टी मिलिते संनिधापनी // 3 // अभ्यन्तराङ्गुष्ठे मुष्टी मिलिते संनिरोधिनी // 4 // मुष्टिं बद्धा प्रसारिततर्जनी - मध्यमोपरि निवेशिताऽङ्गुष्ठाऽवगुण्ठनी // 5 // दक्षिणमुष्टिं बद्धा तर्जनी - मध्यमे प्रसारयेद् इति अस्त्रमुद्रा // 6 // अङ्गुलीक्रमसंकोचनलक्षणः दक्षिणकरसंनिवेशः संहारमुद्रा // 7 // यासां विद्यानां यावान् जापः तावतो समाप्तौ स्वापस्खलिते जापनष्फल्यं, अतः पुनः प्रारब्धव्यः॥ आ श्लोक बोलीने नीचेनो मंत्र भणवो " ही नमोऽस्तु भगवन् ! वर्धमानखामिन् ! पुनरागमनाय खस्थानं गच्छ गच्छ यः यः यः।" 15 आ मंत्र बोलतां संहारमुद्रा करीने (देवनुं) विसर्जन कर। एटले सुषुम्णा नाडीमां पूरक करीने (श्वास लईने ) हृदयकमलमां (भगवानने ) पाछा स्थापन करवा। आ रीते देवनी पूजा करतां वाचनाचार्य अने उपाध्याये आ कृत्यविधि नित्य करवी। ज्यारे वर्धमानविद्याना जाप करवामां आवे त्यारे सौ प्रथम-"इमं विजं पउंजामि सिन्काउ मे पसिज्झउ" एम बोलीने जापनी शरूआत करवी जोईए / आम बोलवाथी बधो आप सफल 20 थाय छे। (मुद्राओ) . 1. बे हाथ वडे अंजलि करीने अनामिकाना मूळना पर्वमा अंगूठा लगाडी राखवा तेने ___'आवाहनी मुद्रा' कहे छ। 2. आह्वाहनी मुद्राने ज ऊलटी रीते बताववी तेने 'स्थापनी मुद्रा' कहे छ / 28 3. बने हाथनी मूठीओ वाळी अंगूठाने ऊंचा करवा तेने 'संनिधापनी मुद्रा' कहे छ। 4. बने हाथनी मूठीओमां अंगूठा दबावी राखवा तेने 'संनिरोधिनी मुद्रा' कहे छ। 5. बने हाथनी मूठीओ वाळी तर्जनी आंगळीओने लांबी करवी अने मध्यमा आंगळी उपर अंगूठा लगाडवा तेने 'अवगुंठनी मुद्रा' कहे छ। 6. जमणा हाथनी मूठी वाळी तर्जनी अने मध्यमा आंगळीओने लांबी करवी तेने 'असमुद्रा' कहे छ। 7. जमणा हाथनी आंगळीओने एक पछी एक एम संकोची लेवी तेने 'संहारमुद्रा' कहे छ। 30