________________ भगवईसुत्तस्स मंगलायरणं // [प्राकृत निर्वृतिपुरीमगच्छन् , अथवा 'पिधु संरादौ इति वचनात् सिद्धयन्ति म-निष्ठितार्था भवन्ति स्स, अथवा 'षिधूञ् शास्त्रे माङ्गल्ये च" इति वचनात् सेधन्ति स्म-शासितारोऽभूवन् माङ्गल्यरूपतां चानुभवन्ति स्मेति सिद्धाः, अथवा सिद्धाः-नित्याः, अपर्यवसानस्थितिकत्वात् , प्रख्याता वा भव्यरुपलब्धगुणसन्दोहत्वात् , आह च "मातं सितं येन पुराणकर्म यो वा गतो निर्वृतिसौधमूर्ध्नि / ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो यः सोऽस्तु सिद्धः कृतमङ्गलो मे // " अतस्तेभ्यो नमः / नमस्करणीयता चैषामविप्रणाशिज्ञानदर्शनसुखवीर्यादिगुणयुक्ततया स्वविषयप्रमोदप्रकर्षोत्पादनेन भन्यानामतीवोपकारहेतुत्वादिति // 2 // णमो आयरियाणं' ति / आ–मर्यादया तद्विषयविनयरूपया चर्यन्ते सेव्यन्ते जिनशासनार्थों10 पदेशकतया तदाकातिभिरित्याचार्याः / उक्तञ्च ___ "मुक्थविऊ लक्खणजुत्तो गच्छस्स मेढिभूओ य। ___गणततिविप्पमुक्को अत्थं वाएइ आयरियो // " अथवा 'षिध्' धातुनो 'संसद्धि' (निष्ठा) एवो अर्थ थाय छे / जेओनां प्रयोजनो सिद्ध थई , गयेलां छे ते सिद्ध कहेवाय छ / अथवा 'षिध्' धातुनो शास्त्र अने मांगल्य एवो अर्थ थाय छे। 15 एटले जेओ शासक छे तथा जेओ मंगळरूप छे ते सिद्ध कहेवाय छे / अथवा सिद्ध एटले नित्य, कारणके तेमनी स्थिति अनंत होय छे / अथवा सिद्ध एटले प्रख्यात; कारणके भव्य जीवो एमना गुणसमूहने सारी रीते जाणता ज होय छे / कयुं छे के- “बांधेलुं प्राचीन कर्म जेमणे बाळी नाख्युं छे, जेओ मोक्षरूपी महेलनी टोच उपर जईने बेठेला छे, जेओ प्रसिद्ध छे, जे अनुशासन करनार छे अने जेओ कृतार्थ छे ते सिद्ध भगवान मने मंगल करनारा थाओ।" आवा सिद्ध 20 भगवतीने मारो नमस्कार हो। सिद्ध भगवंतो अविनाशी, ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य वगेरे गुणोथी युक्त होवाने लीचे तेमना प्रति उत्कृष्ट आनंद उत्पन्न थाय छ / आ रीते तेओ आनंदने उत्पन्न करनारा होवाथी भव्य जीवोने अत्यंत उपकार करनारा छे तेथी सिद्ध भगवंतो नमस्करणीय छ / ___ णमो आयरियाणं / जिनशासनना अर्थना उपदेशक होवाने लीधे तेना अभिलाषी मनुष्यो 20 विनयरूपी मर्यादाथी जेमनी सेवा करे छे तेमने आचार्य कहेवामां आवे छे / कां छे के "सूत्र तथा अर्थने जाणनारा, लक्षणथी युक्त, गच्छना आलंबनभूत तथा गच्छनी चिंवाथी रहित एषा आचार्य भगवान् अर्थनी वाचना आपे छे।" 1 पाणिनीयधातुपाठः 1269. 2 "षिधू शाख्ने माङ्गल्ये च"-पाणिनीयधातुपाठः 49.