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________________ ४९०श्रीमद्रत्नशेखरसूरिरचित 'सिरिसिरिवालकहा'न्तर्गतपञ्चपरमेष्ठिनः पञ्चनवकात्मकः। [प्राकृत अन्तो येषां तानि शेषदानानि सन्ति इति ज्ञात्वा मुक्तौ अन्तो यस्य तत् मुक्त्यन्तं ज्ञानं-श्रुतज्ञानदानं ये ददति तानहं ध्यायामीति भावः // 1250 // . ____अन्नाणंधे लोयाण, लोयणे जे पसत्थसत्थमुहा / उग्घाडयंति सम्म, तेऽहं झाएमि उज्झाए // 1251 // 5 व्याख्या-ये गुरवोऽज्ञानेन अन्धानि, लोकानां लोचनानि-नेत्राणि प्रशस्तशास्त्रमुखात् लोचनपक्षे प्रशस्तशस्नमुखात् सम्यक् उद्घाटयन्ति, तानुपाध्यायान् अहं ध्यायामि // 1251 // बावन्नवण्णचंदणरसेण जे लोयपावतावाई। उवसामयंति सहसा तेऽहं झाएमि उज्झाए // 1252 // व्याख्या-द्वापञ्चाशद्वर्णा एव चन्दनरसः तेन ये गुरवः सहसा- अकस्मात् लोकानां 10 पापतापान् उपशामयन्ति, तानुपाध्यायानहं ध्यायामि // 1252 // जे रायकुमरतुल्ला गणतत्तिपरा अ सूरिपयजुग्गा। वायति सीसवग्गं तेऽहं झाएमि उज्झाए // 1253 // व्याख्या-ये राजकुमारतुल्याः, च-पुनः गणतृप्तिपरागणसमाधानकरणतत्पराः तथा सूरिपदस्यआचार्यपदस्य योग्याः शिष्यवर्ग वाचयन्ति शिष्यवर्गाय वाचनां ददति, तानुपाध्यायानहं ध्यायामि // 1253 // 15 जे सण-नाण-चरित्तरूवरयणत्तएण इक्केण / साहंति मुक्खमग्गं ते सव्वे साहुणो वंदे // 1254 // व्याख्या-ये दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपरत्नत्रयेण मोक्षमार्ग साधयन्ति, कीदृशेन दर्शन-ज्ञानचारित्रत्रयेण ? - 'एकेन' एकीभावं गतेन सम्मिलितेनेत्यर्थः, त्रयाणामेकत्वं विना मोक्षमार्गों न सिद्धयतीति भावः, तान् सर्वान् साधून अहं वन्दे // 1254 // 20 एम जाणीने मोक्षमा जाय त्यांसुधी चाले एबुं ज्ञानदान जे सदाकाळ आपे छे ते उपाध्याय भगवंतोनुं हुं ध्यान धरं छु // 1250 // ____ अज्ञानथी अंध बनेला जीवोनां नेत्रोने जेओ सारां शास्त्रो द्वारा (चिकित्सापूर्वक) सारी रीते उघाडे छे (शास्त्ररूपी शस्त्रो वडे तेमनां नेत्रपडलोने छेदीने प्रकाश आपे छे) ते उपाध्याय भगवंतोनुं हुं ध्यान धरं छु // 1251 // 25 बावन अक्षररूप (चौद स्वर, तेत्रीश व्यंजन, ल, क्ष, ज्ञ-ए त्रण बहुमान्य वर्णो, अनुस्वार अने विसर्ग) चंदनना रसवडे लोकोना पापरूप तापने एकदम शमावी दे छे ते उपाध्याय भगवंतोतुं हुं ध्यान धरूं छं॥ 1252 // युवराज समान ( एटले भविष्यमा आचार्यरूप राजपदवी प्राप्त करवाना छे), गच्छर्नु समाधान करवामां तत्पर अने आचार्यपदने लायक एवा जेओ शिष्यवर्गने वाचना आपे छे ते 30 उपाध्याय भगवंतोतुं हुं ध्यान धरूं छु // 1253 // साधु दर्शन, ज्ञान अने चारित्ररूप अनुपम रत्नत्रयी वडे जेओ मोक्षमार्गने साधे छे ते बधा साधुमहाराजोने हुं वंदन करुं छं / / 1254 //
SR No.004340
Book TitleNamaskar Swadhyay Prakrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vardhak Sabha
Publication Year1961
Total Pages592
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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