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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय ॥ पान ५९ ॥
कहिये अधिष्ठान आधार । स्थिति कहिये कालका प्रमाण । विधान कहिये प्रकार । ऐमे इनिका द्वंद्वसमासकरि बहुवचनरूप करण अर्थ प्रमाणनयकीज्यों जाननां । संक्षेपतें तौ अधिगमका उपाय प्रमाणनय कहे । बहुरि मध्यमस्थानते शिष्यके आशयके वशकरि इनि निर्देश आदि अनुयोगनिकरि कहना । तहां कहा वस्तु है? कौनकै है ? काहेकरि है ? कौनविर्षे है, कितेककाल है ? के प्रकार है ? ऐसे छह प्रश्न होते, इनिका उत्तर कहनां ते निर्देशादिक हैं। उदाहरण- सम्यग्दर्शन कहा है ? ऐसैं प्रश्न होते तत्त्वार्थश्रद्धान है सो सम्यग्दर्शन है। अथवा याके नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव कहने सो निर्देश है । बहुरि सम्यग्दर्शन कौनकै है ? ऐसा प्रश्न होतें सामान्यकरि तो जीव है ऐसा कहना ।।
बहुरि विशेषकरि कहना तब गतिके अनुवादकरि नरकगतिविर्षे सर्वपृथ्वीनिमें नारकी | जीवनिकै पर्याप्तककै औपशमिक क्षायोपशमिक है । बहुरि पहली पृथ्वीविर्षे पर्याप्तक अपर्याप्तक जीवनिकै क्षायिक अरु क्षायोपशमिक है । बहुरि तिर्यग्गतिविषे तिर्यंच पर्याप्तककै औपशमिक होय | है । बहुरि क्षायिक क्षायोपशमिक पर्याप्तक अपर्याप्तक दोऊनिहीकै होय है । बहुरि तिर्यंचणीकै
क्षायिक नाही है । औपशमिक शायोपशमिक पर्याप्तककैही होय है । अपर्याप्तककै नांही होय है। | ऐसेही मनुष्यगतिविर्षे पर्याप्तक अपर्याप्तककै क्षायिक क्षायोपशमिक है । बहुरि औपशमिक पर्याप्तकहीकै
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