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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ।। पान ५७ ।।
युगपत् न कह्या जाय ताकी मुख्यताकरि घट अवक्तव्य है ॥ ५ ॥ तैसें कह्या प्रकारकरि अघट अवक्तव्य है ॥ ६ ॥ बहुरि तैसें कमकरि दोऊ कहे जाय युगपत् कहे न जाय ताकरि घट अघट अवक्तव्य है ॥७॥ ऐसें यहु सप्तभंगी सम्यग्दर्शनादिक तथा जीवादिक पदार्थनिविर्षे द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयका मुख्यगौणभेदकरि लगाइये तब अनंत वस्तु तथा अनंत धर्मके परस्पर विधिनिषेधते अनंत सप्तभंगी होय हैं । इनिहीका सर्वथा एकांत अभिप्राय होय तब मिथ्यावाद है ॥
बहुरि वचनरूप प्रमाणसप्तभंगी तथा नयसप्तभंगी होय है । इहां प्रमाणविषय तौ अनंतधर्मात्मक | वस्तु है । तहां एकही वस्तुका वचनकै सर्वधर्मनिकी अभेदवृत्तिकरि तथा अन्यवस्तुके अभेदके उपचारकरि प्रमाणसप्तभंगी होय है । बहुरि नयका विषय एकधर्म है तातें तिस धर्मकी भेदवृत्तिकार तथा अन्यनयका विषय जो अन्यधर्म ताके भेदके उपचारकरि नयसप्तभंगी होय है । इहां कोई पूछैन । अनेकांतही है ऐसभी एकांत आवै है तब अनेकातही कैसे रह्या ? ताका उत्तर-- यह सत्य है, जो अनेकांत है सोभी अनेकांतही है । जाते प्रमाणवचनकरि तौ अनेकांतही है । नयवचनकरि एकांतही
है । ऐसें एकांतही सम्यक् है जाने प्रमाणको मापेक्षा भई । बहुरि जहां निरपेक्ष एकांत है सो मिथ्या . हा है । इहां कोई कहै, अनेकांत तौ छलमात्र है । पैलेकी युक्ति बाधनेकू छलका अवलंबन है । तहा
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