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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय || पान ५६ ॥
ज्ञेयाकार है । तहां घट ज्ञेयाकाररूप ज्ञान तौ घटका स्वात्मा है । घटका व्यवहार याहीतें चलै है । बहुरि विना घटाकर ज्ञान है सो परात्मा है । जातैं सर्वज्ञेयतें साधारण है । सो घट ज्ञेयाकारकरि तौ घट है | विना घटाकर ज्ञानकरि अघट है । जो ज्ञेयाकारकरिभी घट न होय तौ तिसके आश्रय जो करयोग्य कार्य है ताका निरास होय । बहुरि ज्ञानाकारकरिभी घट होय तौ पटादिकका आकार भी ज्ञानका आकार है सोभी घट ठहरै । ऐसे ये दोय भंग हैं ॥ १० ॥
ऐसेही इनके पांच पांच भंग और कहिये तब सात सात भंग होय, सोभी दिखाईये हैं । एक घट तथा अघट दोय कहे ते परस्पर भिन्न नांही हैं । जो जुदे होय तो एक आधारपणांकर दोऊ नामकी तथा दोऊके ज्ञानकी एक घट वस्तुविषै वृत्ति न होय, घटपटवत् । तातैं परस्पर अविनाभाव होते दोऊ मैं एकका अभाव होते दोऊका अभाव होय । तब इसके आश्रय जो व्यवहार ताका लोप होय । तातें यह घट है सो घट अघट दोऊ स्वरूप है । सो अनुक्रमकरि वचनगोचर है ॥ ३ ॥ बहुरि जो घट अघट दोऊ स्वरूप वस्तुकं घटही कहिये तौ अघटका ग्रहण न होय । अघटही कहिये तौ घटका ग्रहण न होय । एकही शब्दकरि एककाल दोऊ कहै न जाय तातैं अवक्तव्य है || ४ || बहुरि घटस्वरूपकी मुख्यताकरि कह्या जो वक्तव्य तथा
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