________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobetirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। प्रथम अध्याय । पान ५४ ।।
घटका आश्रयरूप व्यवहारका अभाव होय । जैसे विनस्या तथा नांही उपज्यां घटकै घटका व्यवहारका अभाव है तैसे यहभी ठहरै ऐसे दोय भंग यह भये ।। ५।। अथवा तिस वर्तमान घटवर्षे रूपादिकका समुदाय परस्पर उपकार करनेवाला है । ताविर्षे पृथुबुन्नोदरादि आकार है सो का खात्मा है । अन्य सर्व परात्मा है । तिस आकार तौ घट है । अन्य आकारकरि अघट है। का व्यवहार तिसही आकारतें है । तिस विना अभाव है । तो पृथुबुनोदराद्याकारकरिभी घट न हो तो घट काहेका ? । बहुरि जो इतर आकारकरि घट होय तौ आकारशून्यविभी घटव्यवहारकी प्राप्ति आवै । ऐसे ये दोय भंग हैं ॥६॥ अथवा रूपादिकका संनिवेश जो रचनाविशेष आकार तहां नेत्रकरि घट ग्रहण होय है । ता व्यवहारविर्षे रूपको प्रधानकरि घट ग्रहण कीजिये तहां रूप घटका स्वात्मा है । बहुरि वामैं रसादिक हैं ते परात्मा हैं ।सो घटरूपकरि तौ घट है रसादिककरि अघट है । जाते ते रसादिक न्यारे न्यारे इंद्रियनिकरि ग्राह्य हैं । जो नेत्रकरि घट ग्रहण कीजिये है तैसे रसादिकभी ग्रहण करै | तौ सर्वकै रूपपणांका प्रसंग आवै तौ अन्य इंद्रियनिकी कल्पना निरर्थक होय । बहुरि रसादिककीज्यों || रूपभी घट ऐसा नेत्र नांही ग्रहण करै तौ नेत्रगोचरता या घटमैं न होय । ऐसै ये दोय भंग भये ॥७॥ अथवा शब्दके भेदतें अर्थका भेद अवश्य है । इस न्यायकरि घट कुट शब्दनिकै अर्थभेद है।
For Private and Personal Use Only