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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता || प्रथम अध्याय ॥ पान ५३ ।।
ताविषै जो न्यारा आकार है, सो तौ घटका स्वात्मा है, अन्य सर्व परात्मा है । तहां अपना जुदा रूपकरि घट है । अन्यरूपकरि अघट है । जो अन्यरूपकरिभी घट होय तौ सर्व घट एक घटमात्र होय । तब सामान्याश्रय व्यवहारका लोप होय । ऐसे ये दोय भंग भये । इहां जेते विशेष घटाकार होय तेही विधिनिषेध भंग होय ॥ ३ ॥ अथवा तिसही घटविशेषविषै कालांतरस्थायी होते पूर्व उत्तर कपालादि कुशूलांत अवस्थाका समूह सो घटकै परात्मा । बहुरि ताकै मध्यवर्ती घट सो स्वात्मा । सो तिस स्वात्माकर घट है । जातैं ताविषै ताके कर्म वा गुण दीखे है । बहुरि अन्यस्वरूपकरि अघट है | जो कपालादि कुशूलांत स्वरूपकरिभी घट होय तौ घटअवस्थाविषैभी तिनिकी प्राप्ति होय । उपजायवा निमित्त तथा विनाशकै निमित्त पुरुषका उद्यम निष्फल होय । तथा अंतरालवर्ती पर्याय घटस्वरूप रभी घट न होय तौ घटकरि करनेयोग्य फल न होय । ऐसै ये दोय भंग भये ॥ ४ ॥ अथवा क्षण क्षण प्रति द्रव्यके परिणामकै उपचय अपचय भेदतें अर्थातरपना होय है । यातें ऋजुसूत्र की अपेक्षा वर्तमान स्वभावकरि घट है । अतीत अनागत स्वभावकरि अघट है । ऐसें न होय तौ वर्तमानकीज्यों अतीत अनागत स्वभावकरिभी घट होय तब एकसमयमात्र सर्वस्वभाव होय । बहुरि अतीत अनागतकीज्यों वर्तमान स्वभावभी होय तो वर्तमानघटस्वभावका अभाव होते
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