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।। सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान ५२ ॥
विधिनिषेधकी मुख्य गौणविवक्षाकरि निरूपण करनां । तहां याकी अपेक्षा प्रगट करिये है । तहां अपने स्वरूपकरि कथंचित् घट है । परके स्वरूपकरि कथंचित् अघट है । तहां घटका ज्ञान तथा घटका अभिधान कहिये संज्ञाकी प्रवृत्तिका कारण जो घटाकार चिन्ह, सो तो घटका स्वात्मा कहिये स्वरूप है । बहुरि जहां घटका ज्ञान तथा घटका नामकी प्रवृत्ती... कारण नाही ऐसा पटादिक, सो परात्मा कहिये परका स्वरूप है । सो अपने स्वरूपका ग्रहण परस्वरूपका त्यागकी व्यवस्थारूपही वस्तूका वस्तुपनां है । जो आपविर्षे परते जुदा रहनेका परिणाम न होय तौ सर्व पर घटस्वरूप होय जाय । अथवा परतें जुदा होतेभी अपने स्वरूपका ग्रहणका परिणाम न होय तौ गदहाके सीगवत् अवस्तु होय । ऐसे ये विधिनिषेधरूप दोय भंग भये, ताके सात कहि लेने ॥ १॥
बहुरि नाम स्थापना द्रव्य भावनिविर्षे जाकी विवक्षा करिये, सो तौ घटका स्वात्मा है । जाकी विवक्षा न करिये सो परात्मा है । तहां विवक्षितस्वरूपकरि घट है । अविवक्षित स्वरूपकरि अघट है । जो अन्यस्वरूपभी घट होय विवक्षितस्वरूपकरि नहीं होय तौ नामादिकका व्यवहारका
लोप होय । ऐसे ये च्यारिनिके दोय दोय भंग होय ॥ २ ॥ अथवा विवक्षित घटशब्दवाच्यसमाना|| कार जे घट तिनिका सामान्यका जे विशेषाकार घट तिनिविर्षे कोई एक विशेष ग्रहण करिये |
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