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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनका पंडित जयचंदजीकृता ।। प्रथम अध्याय || पान ५१ ।।
कालकर वृत्ति है | तथा अनेक गुणपर्यायनिकरि कीया उपकारभी जुदा जुड़ा है । जो एकही मानिये तो एक मनुष्यपणांही उपकार ठहरे। ऐसे उपकारकरि भेदवृत्ति है । तथा गुणिका देश है सो गुणगुणप्रति भेदरूपी कहिये । जो एकही कहिये तो मनुष्यपणांहीका देश ठहरे अन्यका न ठहरै तातें गुणिदेशकरिभी भेदवृत्ति है । तथा संसर्गकाभी प्रतिसंसर्ग गुणपर्यायनितें भेदही है, एकही होय तौ अन्यका संसर्ग न ठहरे, तातें संसर्गकरिभी भेदवृत्ति है । तथा शब्दभी सर्वगुणपर्याय निका जुदा जुदा वाचक है । एक मनुष्यपणां ऐसाही वचन होय तौ सर्वकै एकशब्दवाच्यपणाकी प्राप्ति आवै । ऐसें मनुष्यपणांने आदि देकर सर्वही गुणपर्यायनि के एक मनुष्यनाम वस्तुविषै अभेदवृत्तीका असंभव होते भिन्नभिन्न स्वरूपनिकै भेदवृत्ति भेदका उपचार करिये । ऐसें इनि दोऊ भेदवृत्ति भेदोपचार, अभेदवृत्ति अभेदोपचारतें एकशब्दकर एक मनुष्यादि वस्तु अनेकधर्मात्मपण कुं स्यात्कार है सो प्रगट करनेवाला है ।।
सो याके सप्तभंग हैं सो कैसे उपजै हैं? ताका उदाहरण कहिये हैं । जैसे एक घटनामा वस्तु है सो कथंचित् घट है, कथंचित् अघट है, कथंचित् घट अघट है, कथंचित् अवक्तव्य हैं, कथंचित् घट अवक्तव्य है, कथंचित् अघट अवक्तव्य है, कथंचित् घट अघट अवक्तव्य है । ऐसे
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