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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान ४९ ॥ निरर्थकपणां आवै । ऐसें परमार्थतें अस्तित्वादि गुणनिका एकवस्तुविर्षे अभेदका असंभव होतें कालादिककरि अभेदोपचार कीजिये है । ऐसें अभेदवृत्ति अभेदोपचार भेदवृत्ति भेदोपचार इनि दोऊनितें एकशब्द अनंतधर्मात्मक एक जीवादि वस्तुका यहु स्यात् शब्द है सो द्योतक है ॥
इहां प्रश्न- जो, शास्त्रनिमें तौ स्यात् शब्द वाक्यवाक्यप्रति सुण्या नांही । तुम कैसैं कहौ हौ ? जो सर्ववस्तुको स्यात् शब्दते साधिये । ताका उत्तर- जो, शास्त्रमें याका प्रयोग जहां नांही है तहां स्यादादी अर्थकरि सर्वशब्दनिपरि लगाय ले है । जाते वस्तुस्वरूप अनेकांतात्मकही है तातें वस्तुके जाननेवाले स्यात् शब्दकों जानिले हैं ऐसे श्लोकवार्तिकमैं कह्या है । बहुरि इहां अन्य उदाहरण कहिये है । जैसे कोई एक मनुष्यनामा वस्तु है सो गुणपर्यायनिके समुदायरूप तौ द्रव्य है । बहुरि याका देहप्रमाण संकोच विस्तार लीये क्षेत्र है । बहुरि गर्भ” ले मरणपर्यंत याका काल है । बहुरि जेती गुणपर्यायनिकी अवस्था याकै हैं ते भाव हैं । ऐसे द्रव्यादि चतुष्टय यामें पाईये है । तहां कालादिककरि अभेदवृत्तिकरि कहिये तव जेते काल आयुबलपर्यंत मनुष्यपणा | नामा गुण है, तेही काल अन्य याके सर्वधर्म हैं, ऐसे कालकरि अभेदवृत्ति । तथा है जोही | मनुष्यपणांक मनुष्यरूप करणां आत्मरूप है, सोही अन्य अनेक गुणनिकै है । ऐसें आत्मरूपकरि |
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