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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय । पान ४८ ॥
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बहुरि द्रव्यार्थिक गौणकरि पर्यायार्थिक प्राधान्य होतें गुणनिकी कालादिक अष्टप्रकारकी अभेदवृत्ति नांही संभव है । सोही कहिये हैं । क्षणक्षणप्रति औरऔरपणांकी प्राप्ति है । जातें सर्वका काल | भिन्नभिन्न है । नानागुण एकवस्तुविर्षे एककाल संभवै नाही । जो संभवै तौ ताके आधाररूप वस्तुकेभी तेतेही भेद होय जाय, तातें कालकरि भेदवृत्ति है । बहुरि तिनि गुणनिका आत्मरूपभी भिन्न है । अभिन्न होय तो भेद कैसे कहा जाय ? यामें विरोध है । तातें आत्मरूपकरि भेदवृत्ति है । बहुरि तिनिका आश्रयभी जुदा जुदाही है । जो जुदा न होय तो नानागुणका आश्रय वस्तु न | ठहरै ऐसै आश्रयकार भेदवृत्ति है । बहुरि संबंधीके भेदकरि भेद देखिये है । जाते अनेकसंबंधीनिकरि
एकवस्तुविर्षे संबंध बणे नाही तातें संबंधकरि भेदवृत्ति है । बहुरि तिनि गुणनिकरि कीया उपकार | प्रतिनियत जुदा जुदा है । तातें अनेक हैं । याहीतें उपकारकरि भेदवृत्ति है । वहुरि गुणीका देश है |
सो गुणगुणप्रति भेदरूप है । अभेदरूप कहिये तो भिन्नपदार्थके गुणतेंभी अभेदका प्रसंग आवै । | ताते गुणिदेशतेंभी भेदवृत्ति है । बहुरि संसर्गका संसर्गिप्रति भेद है । जो अभेदही कहिये तो
संसर्गीके भेदका विरोध आवै तातें संसर्गतॆभी भेदवृत्ति है । बहुरि शब्दके विषयप्रति नानापणां है । सर्वगुणनिका एकही शब्द वाचक होय तौ सर्वपदार्थनिका एकशब्द वाचक ठहरै तब अन्यशब्दकै |
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