Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण 191
परम्पराय मोक्ष का कारण है स्वर्ग में देवों के समूह के मध्य तिष्ठता मन बांछित इन्द्रियोंके सुखको भोगे है और मुनि के धर्म से कर्म काट मोक्ष के अतेन्द्रिय सुखको पावे है अतेन्द्रिय सुख सर्व बाधा रहित अनुपम है जिसका अन्त नहीं, अविनाशी है और श्रावकके व्रतसे स्वर्ग जाय तहांसे चय मनुष्य होय मुनिराज के व्रत घर परमपदको पावै है और मिथ्यादृष्टि जीव कदाचित तपकर स्वर्ग जाय तो चयकर एकेन्द्रि यादिक योनि के विषे आय प्राप्त होय है अनन्त संसार भ्रमण कर है इसलिये जैनही परम धर्म है और जैनही परम तपहै जैनही उत्कृष्ट मत है जिनराज के वचनही सार हैं जिनशासन के मार्गसे जो जीव मोक्ष प्राप्त होनेको उद्यमीहुवा उसको जो भव धरने पड़ें तो देव विद्याधर राजाके भव तो बिना चाहे सहजही होय हैं जैसे खेती के करनहारेका उद्यम धान्य उपजानेकाहै घास कबाड़ पराल इत्यादि सहज ही होय हैं और जैसे कोऊ पुरुष नगर को चला उसको मार्ग में वृक्षादिक का संगम खेदका निवारण है तैसे शिवपुरी को उद्यमी भये जे महामुनि तिनको इन्द्रादिक पद शुभोपयोग के कारणसे होय हैं मुनि का मन तिनमें नहीं शुद्धोपयोग के प्रभावसे सिद्धि होनेका उपाय है और श्रावक और जैनके धर्म से जो विपरीत मार्ग है सा अधर्म जानना जिससे यह जीव नाना प्रकार कुगति में दुःख भोगे है तियंच योनिमें मारण ताड़ण छेदन भेदन शीत ऊष्ण भूख प्यास इत्यादि नाना प्रकारके दुःख भोगे है और सदा अन्धकार से भरे नरक अत्यन्त उषण अत्यंत शीत महा विकराल पवन जहां अग्निके कण बरसै हैं नाना प्रकार के भयङ्कर शब्द जहां नारकियों को पानी में पेले हैं करोतें से चीरे हैं जहां भयकारी शाल्मली वृक्षोंके पत्र चक्र खड़ग सेल समान हैं उनसे तिनकेतन खण्ड खण्ड होयहैं। जहां तांधाशीशा गालकर
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