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कसाय पाहुड सुत्त
[ १ पेजदोस वित्ती
१. णाणप्पवादस्स पुञ्चस्स दसमस्स वत्थुस्स तदियस्स पाहुडस्स पंचविहो उवक्कमो । तं जहा – आणुपुच्ची णामं पमाणं वत्तव्वदा अत्थाहियारो चेदि । २. आणुपुव्वी तिविहा ।
ओको विवक्षित प्राभृतके नाम, विषय आदिका बोध होता है उसे उपक्रम कहते है । इस उपक्रमका निरूपण विवक्षित शास्त्र के सम्बन्ध, प्रयोजन आदिको बतलानेके लिए किया जाता है । पूर्वशब्द दिशा आदि अनेक अर्थोंका वाचक है, तथापि यहाँ पर प्रकरणवश बारहवे दृष्टिवाद अंगके अवयवभूत पूर्वगत अधिकारका ग्रहण किया गया है । वस्तु शब्द भी यद्यपि अनेको अर्थोमे रहता है, तो भी प्रकरणके वशसे पूर्वगतके अन्तर्गत अधिकारोका वाचक लिया गया है । वस्तुके अवान्तर अधिकारको पाहुड कहते है । इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि पूर्वगतके चौदह अधिकारोमेसे पॉचवा भेद ज्ञानप्रवाद पूर्व है । इसके भी वस्तु नामक वारह अवान्तर अधिकार हैं, उनमेसे प्रकृतमे दशवा वस्तु अधिकार अभीष्ट है । इसके भी अन्तर्गत बीस पाहुड नामके अर्थाधिकार है, उनमेसे तीसरे पाहुडका नाम पेज्जपाहुड है । इससे इ कसायपाहुडकी उत्पत्ति हुई है । इस सम्बन्ध के बतलाने के लिए ही इस गाथाका अवतार हुआ है | गाथामे आये हुए 'तु' शब्दसे शेष उपक्रम भी सूचित कर दिये गये हैं ।
अब यतिवृपभाचार्य उक्त गाथासे सूचित उपक्रमोका निरूपण करते है-
चूर्णिसु० - ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवे पूर्वके अन्तर्गत दशवी वस्तुके तृतीय प्राभृतका उपक्रम पाँच प्रकारका है। वह इस प्रकार है - - आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थ - धिकार ॥१॥
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विशेषार्थ — प्रतिपादन किये जानेवाले ग्रन्थकी क्रम- परम्पराको बतलाना आनुपूर्वी - उपक्रम कहलाता है । प्रतिपाद्य ग्रन्थके सार्थक या असार्थक नामको कहना नाम - उपक्रम है । लोक आदिके द्वारा उसके प्रमाणको कहना प्रमाण - उपक्रम है । ग्रन्थमे कहे जानेवाले विषयको बतलाना वक्तव्यता- उपक्रम है । ग्रन्थके अधिकार, अध्याय या प्रकरणोकी संख्याको बतलाना अर्थाधिकार उपक्रम कहलाता है । इन पांच उपक्रमो के द्वारा विवक्षित वस्तुका सम्यक् प्रकार वोध होता है, इसलिए ग्रन्थके आदिमे इनका वर्णन किया जाता है ।
अब चूर्णिकार, उक्त पॉचो उपक्रमोके संख्या - प्ररूपणपूर्वक उनका विशेष निरूपण करते हैं-
चूर्णिसू० - आनुपूर्वी तीन प्रकारकी है ||२||
विशेषार्थ -- पूर्वानुपूर्वी, पश्चादानुपूर्वी और यथातथानुपूर्वीके भेदसे आनुपूर्वीउपक्रम के तीन भेद हैं । जो वस्तु जिस क्रमसे विद्यमान है, अथवा जिस प्रकार सूत्रकारोने उपदिष्ट की है, उसे उसी क्रमसे गिनना पूर्वानुपूर्वी है । जैसे -- चौवीस तीर्थंकरोको वृषभ, अजित आदिके क्रमसे गिनना । इससे प्रतिकूल क्रमद्वारा गिनती करना पश्चादानुपूर्वी है । जैसे उन्ही तीर्थकरो को वर्धमान, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ आदिके विपरीत क्रमसे गिनना । इन दोनो क्रमों को छोड़