Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

View full book text
Previous | Next

Page 980
________________ ८७२ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार हिदी तिस्से पढमद्विदीए आवलियाए समयाहियाए सेसाए ताधे जा लोभस्स तदियकिट्टी सा सव्वा णिरवयवा सुहुमसांपराइयकिट्टीसु संकंता । १३३७ जा विदियकिट्टी तिस्से दो आवलिया मोत्तूण समयूणे उदयावलियपविटुं च सेसं सव्वं सुहुमसांपराइयकिट्टीसु संकंतं । १३३८ ताधे चरिमसमयवादरसांपराइओ मोहणीयस्स चरिमसमयबंधगो। १३३९. से काले पडमसमयसुहुमसांपराइओ । १३४०. ताधे सुहमसांपराइयकिट्टीणमसंखेज्जा भागा उदिण्णा । १३४१. हेट्ठा अणुदिण्णाओ थोवाओ। १३४२. उवरि अणुदिण्णाओ विसेसाहियाओ । १३४३. मज्झे उदिण्णाओ सुहुमसांपराइयकिट्टीओ असंखेजगुणाओ १३४४. सुहुमसांपराइयस्स संखेज्जेसु हिदिखंड यसहस्सेसु गदेसु जमपच्छिमं हिदिखंडयं मोहणीयस्स तम्हि द्विदिखंडए उक्कीरमाणे जो मोहणीयस्स गुणसे दिणिक्रयेवो तस्स गुणसेडिणिक्खेवस्स अग्गग्गादो संखेन्जदिभागो आगाइदो । १३४५. तम्हि द्विदिखंडए उक्किण्णे तदोप्पहुडि मोहणीयस्स णत्थि हिदिघादो। १३४६. जत्तियं सुहुमसांपराइयद्धाए सेसं तत्तियं मोहणीयस्स हिदिसंतसम्म ससं १३४७ एत्तिगे। करता, किन्तु सर्व प्रदेशाग्रको सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोमे संक्रमित करता है । लोभकी द्वितीय कृष्टिको वेदन करनेवालके जो प्रथम स्थिति है, उस प्रथम स्थितिमे एक समय अधिक आवलीके शेप रहने पर उस समय जो लोभकी तृतीय कृष्टि है वह सब निरवयव रूपसे सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोमे संक्रान्त होती है। जो द्वितीय कृष्टि है, उसके एक समय कम दो आवलीप्रमित नवकवद्ध समयप्रबद्धको छोड़कर, और उदयावलीप्रविष्ट द्रव्यको भी छोड़कर शेष सर्वप्रदेशाग्र सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोमे संक्रान्त हो जाता है। उस समय यह क्षपक चरम समयवर्ती वादरसाम्परायिक और मोहनीयकर्मका चरमसमयवर्ती वन्धक होता है।।१३३५-१३३८॥ चर्णिस०-तदनन्तरकालमें वह क्षपक प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक होता है । उस समयमे सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोके असंख्यात बहुभाग उदीर्ण होते हैं। अधस्तनभागमें जो कृष्टियाँ अनुदीर्ण हैं, वे अल्प हैं । उपरिम भागमे जो कृष्टियाँ अनुदीर्ण है, वे विशेष अधिक है। मध्यमे जो उदीर्ण सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियाँ है, वे असंख्यातगुणित है। सूक्ष्मसाम्परायिकके संख्यात सहस्र स्थितिकांडकोके व्यतीत हो जानेपर जो मोहनीयकर्मका अन्तिम स्थितिकांडक है, उस स्थितिकांडकके उत्कीर्ण किये जानेपर जो मोहनीयकर्मका गुणश्रेणीनिक्षेप है, उस गुणश्रेणीनिक्षेपके उत्तरोत्तर अग्र-अग्र प्रदेशाग्रसे संख्यातवे भाग घात करनेके लिए ग्रहण करता है। उस स्थितिकांडकके उत्कीर्ण हो जानेपर आगे मोहनीयका स्थितिघात नहीं होता है । ( केवल अधःस्थितिके द्वारा ही अवशिष्ट रही अन्तर्मुहूर्तप्रमित स्थितियाँ निर्जीर्ण होती है। किन्तु ज्ञानावरणादिकर्मों के अनुभागधात इससे ऊपर भी होते रहते है । ) सूक्ष्मसाम्परायिकगुणस्थानके कालमै जितना समय शेष है, उतना ही मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व शेप है। ( और उस स्थितिसत्त्वको अधःस्थितिके द्वारा निर्जीर्ण करता है । ) इतनी प्ररूपणा करनेपर सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपककी प्ररूपणा समाप्त हो जाती है ॥१३३९-१३४७॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 978 979 980 981 982 983 984 985 986 987 988 989 990 991 992 993 994 995 996 997 998 999 1000 1001 1002 1003 1004 1005 1006 1007 1008 1009 1010 1011 1012 1013 1014 1015 1016 1017 1018 1019 1020 1021 1022 1023 1024 1025 1026 1027 1028 1029 1030 1031 1032 1033 1034 1035 1036 1037 1038 1039 1040 1041 1042 1043