Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 989
________________ गा० २१७ ] चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिक्षपणक्रिया-निरूपण ८८१ वज्ज जं सेसकिट्टींणं तमुभएण खवेदि । १४१५. किं उभएणेत्ति ? १४१६. वेतो च संछुहंतो च एदमुभयं। १४१७. एत्तो विदियभूलगाहा । (१६३) जं वेदेंतो किट्टि खवेदि किं चावि बंधगो तिस्से । जं चावि संछुहंतो तिस्से किं बंधगो होदि ॥२१६॥ १४१८. एदिस्से गाहाए एक्का भासगाहा । १४१९. जहा । (१६४) जं चावि संछुहंतो खवेदि किट्टि अबंधगो तिस्से । सुहमम्हि संपराए अबंधगो बंधगिदरासिं ॥२१७॥ १४२०. विहासा । १४२१. जं जं खवेदि किट्टि णियमा तिस्से बंधगो, मोत्तण दो दो आवलियबंधे दुसमयूणे सुहुमसांपराइयकिट्टीओ च । १४२२. एत्तो तदिया मूलगाहा । १४२३. तं जहा । अन्तिम सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिको छोड़कर, तथा दो समय-कम दो आवली-बद्ध कृष्टियोको छोड़कर शेष कृष्टियोको उभय प्रकारसे क्षय करता है ॥१४११-१४१४॥ शंका-'उभय प्रकारसे' इसका क्या अर्थ है ? ॥१४१५॥ समाधान-वेदन करता हुआ और संक्रमण करता हुआ क्षय करता है, यह 'उभय प्रकारसे, इस पदका अर्थ है ॥१४१६॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे क्षपणासम्बन्धी दूसरी मूलगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥१४१७॥ कृष्टिवेदक क्षपक जिस कृष्टिको वेदन करता हुआ क्षय करता है, क्या उसका बन्धक भी होता है ? तथा जिस कृष्टिका संक्रमण करता हुआ क्षय करता है, उसका भी वह क्या बन्ध करता है ? ॥२१६|| चूर्णिसू०-इस मूलगाथाके अर्थका व्याख्यान करनेवाली एक भाष्यगाथा है । वह इस प्रकार है ॥१४१८-१४१९॥ । जिस कृष्टिको भी संक्रमण करता हुआ क्षय करता है, उसका वह बन्ध नहीं करता है। सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिके वेदनकालमें वह उसका अबन्धक रहता है। किन्तु इतर कृष्टियोंके वेदन या क्षपणकालमें वह उनका वन्धक रहता है ॥२१७॥ चूर्णिसू०-इस भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है-जिस जिस कृष्टिका क्षय करता है, नियमसे उसका बन्ध करता है। केवल दो समय-कम दो-दो आवलि-बद्ध कृष्टियोको और सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिको छोड़कर । अर्थात् इनके क्षपण-कालमे उनका वन्ध नहीं करता है ॥१४२०-१४२१॥ - चूर्णिसू०-अब इससे आगे तीसरी मूलगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती हैं। वह इस प्रकार है ॥१४२२-१४२३॥

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