Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 1004
________________ ८९६ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार १५७१. तदो अणंतकेवलणाण-दसण-वीरियजुत्तो जिणो केवली सव्वण्हू सव्वदरिसी भवदि सजोगिजिणो त्ति भण्णइ । १५७२. असंखेज्जगुणाए सेढीए पदेसग्गं णिज्जरेमाणो विहरदि त्ति । चरित्तमोहक्खवणा-अत्याहियारो समत्तो । अन्तरकरणको करके जब तक छह नोकषायोका क्षय करता है, तब तक उस अवस्थाकी संक्रमण संज्ञा है, क्योकि यहाँ पर नपुंसकवेदादि नोकषार्थीका संक्रमण देखा जाता है । अपवर्तनापदसे अश्वकर्णकरणकाल और कृष्टिकरणकालका ग्रहण करना चाहिए। क्योकि, यहॉपर संज्वलन कषायोकी अश्वकर्णके आकारसे ही अपवर्तना देखी जाती है । कृष्टिक्षपणपदसे कृष्टिवेदनकालका ग्रहण करना चाहिए। इसके भीतर दशवें गुणस्थानके अन्तिम समय तककी सर्व प्ररूपणा आ जाती है, क्योंकि यहाँ पर ही सूक्ष्म लोभकृष्टिका क्षय होता है । 'क्षीणमोहान्त' इस पदके द्वारा सूत्रकारने यह भाव व्यक्त किया है कि क्षीणकषाय गुणस्थानके नीचे ही चारित्रमोहनीयकी क्षपणा होती है, इसके ऊपर नहीं होती। इस प्रकार उक्त क्रिया-विशेषोंकी आनुपूर्वी मोहनीयकर्मकी क्षपणामे जानना चाहिए । चूर्णिसू०-तदनन्तर समयमें अनन्त केवलज्ञान, केवलदर्शन और अनन्तवीर्यसे युक्त होकर वह क्षपक जिन, केवली, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है। तभी वह सयोगी जिन कहलाता है । वे सयोगिकेवली जिन प्रतिसमय असंख्यातगुणित श्रेणीसे कर्म-प्रदेशाग्रकी निर्जरा करते हुए (धर्मरूप तीर्थप्रवर्तनके लिए यथोचित धर्मक्षेत्रमे महाविभूतिके साथ ) विहार करते हैं ॥१५७१-१५७२॥ इस प्रकार चारित्रमोहक्षपणा नामक पन्द्रहवाँ अर्थाधिकार समाप्त हुआ ।

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