Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

Previous | Next

Page 1010
________________ ९०२ कसाय पाहुड सुत्त [पश्चिमस्कन्ध-अर्थाधिकार । ९. तदो तदियसमये मंथे करेदि । १०. हिदि-अणुभागे तहेव णिज्जरयदि । १९. तदो चउत्थसमये लोगं पूरेदि । १२. लोगे पुण्णे एका वग्गणा जोगस्स त्ति समजोगो त्ति णायव्यो । १३. लोगे पुण्णे अंतोप्नुहुत्तं द्विदि ठवेदि । १४. संखेज्जगुणमाउआदो । चूर्णिस०-तत्पश्चात् तृतीय समयसे मन्थसमुद्घात करते हैं । इसमे अघातिया कोंकी स्थिति और अनुभागकी कपाटसमुद्धातके समान ही निर्जरा करते हैं ॥९-१०॥ विशेपार्थ-जिस अवस्था-विशेपके द्वारा अघातिया कर्मोंकी स्थिति और अनुभागका सन्थन किया जाय, उसे मन्थसमुद्धात कहते हैं। इसे प्रतरसमुद्धात और रुजकसमुद्धात भी कहते हैं। इस समुद्वातमे आत्मप्रदेश प्रतराकारसे चारों ही ओर फैल जाते हैं अर्थात् वातवलय-रुद्ध क्षेत्रको छोड़कर समस्त लोकमें विस्तृत हो जाते हैं। इस समुद्धातमे पूर्व या उत्तर मुख होनेकी अपेक्षा कोई भेद नहीं पड़ता है । इस अवस्थामें सयोगी जिन कार्मणकाययोगी और अनाहारी हो जाते हैं, अर्थात् मूल शरीरके अवष्टम्भके निमित्तसे आत्मप्रदेशोके परिस्पन्दका अभाव हो जाता है और औदारिकशरीरकी स्थितिके योग्य नोकर्म-पुद्गलपिंडका भी ग्रहण नहीं होता है। चूर्णिसू०-तदनन्तर चतुर्थ समयमें लोकको पूरित करते है । लोकके आत्म-प्रदेशोंसे पूरित करनेपर योगकी एक वर्गणा हो जाती है। इस अवस्थाको ही 'समयोग' जानना चाहिए ॥११-१२॥ विशेपार्थ-चौथे समयमें केवली भगवान्के आत्मप्रदेश वातवलयरुद्ध क्षेत्रमें भी व्याप्त हो जाते हैं, अतएव इसे लोकपूरणसमुद्धात कहते हैं । इस समुद्धातकी अपेक्षा ही जीवके प्रदेशोका परिमाण लोकाकाशके प्रदेशोके समान कहा गया है। इस अवस्थामें जीवके नाभिके नीचेके आठ मध्यम प्रदेश सुमेरुके मूलगत आठ मध्यम प्रदेशोंके साथ एकत्र होकर अवस्थित रहते हैं । इसी अवस्थामें केवली भगवान् सर्वगत या सर्वव्यापी कहे जाते हैं । इस समुद्बातमें भी कार्मणकाययोग होता है और अनाहारक दशा रहती है । इस अवस्थामें वर्तमान केवलीके समस्त जीवप्रदेश योगसम्बन्धी अविभाग-प्रतिच्छेदोकी वृद्धि-हानिसे रहित होकर सदृश हो जाते हैं, अतएव सर्व जीव-प्रदेशोके परस्परमे सहश योगे हो जानेसे उन्हें 'समयोग' कहा जाता है और इसी कारण उनकी एक वर्गणा कही जाती है। यह समयोगपरिणाम सक्ष्मनिगोदिया जीवकी जघन्य वर्गणासे असंख्यातगुणित तत्प्रायोग्य मध्यमवर्गणा-स्वरूप जानना चाहिए। चूर्णिसू०-लोकके पूर्ण होनेपर अर्थात् लोकपूरण-समुद्धात करनेपर अघातिया कर्मोंकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितिको स्थापित करता है । यह अन्तर्मुहूर्तप्रमित स्थिति आयुकर्मकी स्थितिसे संख्यातगुणी है ॥१३-१४॥ विशेषार्थ-लोकपूरणसमुद्धातके करनेपर यद्यपि अघातिया कर्मोकी स्थिति अन्तर्मु१ एदस्स चेव पदरसण्णा रुजगसण्णा च आगमरूढिवलेण दट्टब्वा । जयध०

Loading...

Page Navigation
1 ... 1008 1009 1010 1011 1012 1013 1014 1015 1016 1017 1018 1019 1020 1021 1022 1023 1024 1025 1026 1027 1028 1029 1030 1031 1032 1033 1034 1035 1036 1037 1038 1039 1040 1041 1042 1043