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सू० ४९ ]
केवलिसमुद्धात गत-विशेषक्रिया निरूपण
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फद्दयाणि सेटीए असंखेज्जदिभागो । ३४. सेडिबग्गमूलस्स वि असंखेज्जदिभागो । ३५. पुव्चकद्दयाणं पि असंखेज्जदिभागो सव्वाणि अपुव्वफद्दयाणि ।
३६. तो अंतमुत्तं किडीओ करेदि । ३७. अपुण्यफद्दयाणमादिवग्गणाए अविभाग पडिच्छेदाणमसंखेज्जदिभाग मोकडदि । ३८. जीवपदेसाणमसंखेज्जदिभागमोदि । ३९. एत्थ अंतोमुहुत्तं करेदि किडीओ असंखेज्जगु [णही ]णाए सेडीए । ४०. जीवपदेसाणमसंखेज्जगुणाए सेढीए । ४१. किट्टी गुणगारो पलिदोषमस्स असंखेज्जदिभागो । ४२. किट्टीओ सेढीए असंखेज्जदिभागो । ४३. अपुव्वफक्ष्याणं पि असंखेज्जदिभागो । ४४. किट्टीकरणद्धे गिट्टिदे से काले पुन्वफद्दयाणि अपुञ्चफद्दयाणि चणासेदि । ४५ अंतोमुहुत्तं किट्टीगदजोगो होदि ।
४६. सुहुम किरिय [म] पडिवादिझाणं झादि । ४७. किट्टीणं चरिमसमये असंखेज्जे भागे णादि । ४८. जोगम्हि णिरुद्धम्हि आउअसमाणि कम्पाणि होंति । ४९. तदो अंतोमुहुत्तं सेलेसिं' य पडिवज्जदि ।
जगच्छेणी वर्गमूलके भी असंख्यातवें भाग है और पूर्व स्पर्ध कोके भी असंख्यातवे भाग हैं ॥। २७-३५॥
चूर्णिसू० - इससे आगे अर्थात् अपूर्वस्पर्धकोकी रचना करनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त तक कृष्टियोको करते है । अपूर्वस्पर्धकोकी आदिवर्गणासम्बन्धी अविभाग - प्रतिच्छेदोके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करते हैं । तथा जीवप्रदेशो के असंख्यातवे भागका अपकर्षण करते हैं। यहाॅ पर अन्तमुहूर्त तक असंख्यातगुणित हीन श्रेणीके द्वारा कृष्टियोको करते हैं । जीवप्रदेशोका अपकर्पण असंख्यातगुणित श्रेणीसे करते हैं । यहाँ पर कृष्टियोका गुणकार पल्योपमका असंख्यातवा भाग है । ये कृष्टियों जगच्छ्र ेणीके असंख्यातवे भाग हैं और अपूर्वस्पर्धकोंके भी असंख्यातवे भाग हैं । कृष्टिकरण के निष्पन्न होने पर उसके अनन्तर समयमें पूर्व-स्पर्धको और अपूर्व- स्पर्धको का नाश करते हैं । उस समय सयोगिकेवली जिन अन्तर्मुहूर्त काल तक कृष्टिगतयोगवाले होते है ॥ ३६-४५॥
चूर्णिसू० - उसी समय सयोगिकेवली जिन सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक तृतीय शुकुध्यानको याते हैं और तेरहवें गुणस्थानके अन्तिम समयमे कृष्टियोके असंख्यात वहुभागका नाश करते हैं । इस प्रकार योगका निरोध हो जानेपर आयुकी स्थिति के समान स्थितिवाले तीनो अघातिया कर्म हो जाते हैं । तत्पश्चात् वे भगवान् अयोगिकेवली वनकर अन्तर्मुहूर्त - काल तक शैलेश्य अवस्थाको प्राप्त होते हैं ॥ ४६-४९॥
विशेषार्थ - योगनिरोध करनेके अनन्तर वे सयोगिकेवली भगवान् शैलेशी अवस्थाको
१ किं पुनरिद शैलेश्य नाम ? शीलानामीशः शीलेग, तस्य भावः शैलेय्य सकलगुणगीलानामेकाधिपत्यप्रतिलम्भनमित्यर्थः । शीलेशः सर्वसवररूपचरणप्रभुस्तस्येयमवस्था । शैलेगो वा मेदस्तस्यैव यावस्था स्थिरता साधर्म्यात् सा शैलेशी । सा च सर्वथा योगनिरोधे पचहत्वाअरोच्चारखाल्माना । व्याख्याप्रशति. १,८,७२ अभयदेवीया वृत्तिः ।
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