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कसाय पाहुड सुत्त [ पश्चिमस्कन्ध-अर्थाधिकार ५०. समुच्छिण्णकिरियमणियट्टिसुक्कझाणं झायदि । ५१. सेलेसिं अद्धाए झीणाए सव्यकम्मविप्पमुक्को एगसमएण सिद्धिं गच्छई । ५२. खवणदंडओ समत्तो ।
पच्छिमक्खंधो अत्थाहियारो समत्तो । प्राप्त होते हैं, अर्थात् चौदहवें अयोगिकेवली गुणस्थानमे प्रवेश करते है । उस समय उनके अठारह हजार शीलके भेद और चौरासी लाख उत्तर गुण परिपूर्णताको प्राप्त हो जाते हैं । यद्यपि उक्त शील और उत्तर गुणोकी पूर्णता सयोगिजिनके भी मानी जाती है, पर योगके सान्निध्यसे वहाँ पूर्ण संवर नहीं है, अतः परमोपेक्षालक्ष्ण यथाख्यात-विहारशुद्धि संयमकी चरम सीमा योगनिरोध होनेपर ही संभव है । 'सेलेसिं' इस प्राकृतपदका 'शैलेशी' ऐसा संस्कृतरूप मानकर कुछ आचार्य इसका यह भी अर्थ करते हैं कि शैल अर्थात् पर्वतोका ईश सुमेरु जैसे सर्वदा अचल, अकंप रहता है, उसी प्रकार योगका अभाव हो जानेसे अयोगिजिनकी अवस्था एकदम शान्त, स्थिर और अकंप हो जाती है । इस शैलेशी अवस्थाका काल पंच ह्रस्व अक्षरोके उच्चारणकाल-प्रमाण है ।
चूर्णिसू०-उस समय शैलेश्य अवस्थाको प्राप्त अयोगिकेवली जिन समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यानको ध्याते हैं। शैलेश्यकालके क्षीण हो जाने पर सर्व कर्मोंसे विप्रमुक्त होकर एक समयमे सिद्धिको प्राप्त हो जाते हैं ।।५०-५१॥
चूर्णिस०-इस प्रकार क्षपणाधिकारके चूलिकास्वरूप इस पश्चिमस्कन्धमें अघातिया कर्मोंके क्षपणका विधान करनेवाला यह क्षपण-दण्डक समाप्त हुआ ।५२।।
इस प्रकार पश्चिमस्कन्ध नामक अर्थाधिकार समाप्त हुआ
१ अयोगिकेवलिगुणावस्थानकाला शैलेश्यद्धा नाम । सा पुनः पचह्रस्वाक्षरोच्चारणकालावच्छिन्नपरिमाणेत्यागमविदां निश्चयः। तस्यां यथाक्रममधःस्थितिगलनेन क्षीणाया सर्वमलकलकविप्रमुक्तः खात्मोपलब्धिलक्षणां सिद्धिं सकलपुरुषार्थसिद्धः परमकाष्ठानिष्ठमेकसमयेनैवोपगच्छतिः कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षानन्तरमेव मोक्षपर्यायाविर्भावोपपत्तेः । जयध०