Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 1003
________________ गा० २३३ ] चारित्रमोहक्षपक-क्षीणकषायत्व-निरूपण १५६७. [ एत्थुद्देसे खीणमोहद्धाए पडिबद्धा एक्का मूलगाहा । ] १५६८. तिस्से समुकित्तणा। (१७९) खीणेसु कसाएसु य सेसाणं के व होति वीचारा । खवणा व अखवणा वा बंधोदयणिज्जरा वापि ॥२३२॥ १५६९. [ संपहि एत्थेवुद्देसे एका संगहमूलगाही विहासियन्वा । ] १५७०. तिस्से समुकित्तणा। (१८०) संकामणमोवट्टण-किट्टीखवणाए खीणमोहंते। खवणा य आणुपुवी बोद्धव्या मोहणीयस्स ॥२३३॥ अब क्षीणमोह-कालसे प्रतिबद्ध जो एक मूलगाथा है, उसकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥१५६७-१५६८॥ ____कषायोंके क्षीण हो जानेपर शेप ज्ञानावरणादि कर्मोंके कौन-कौन क्रिया विशेषरूप वीचार होते हैं ? तथा क्षपणा, अक्षपणा, बन्ध उदय और निर्जरा किन-किन कर्मोकी कैसी होती है ? ॥२३२॥ विशेषार्थ-इस मूलगाथाका अर्थ कृष्टि-सम्बन्धी ग्यारह गाथाओके समान ही जानना चाहिए। केवल यहॉपर १ स्थितिघात, २ स्थितिसत्त्व, ३ उदय, ४ उदीरणा, ५ स्थितिकांडकघात और ६ अनुभागकांडकघात ये छह क्रियाविशेष ही कहना चाहिए । क्षपणापद कषायोंके क्षीण हो जानेपर शेष तीन घातिया कर्मोंकी क्षपणाविधिका निर्देश करता है । अक्षपणापद बारहवें गुणस्थानमे चारो अघातिया कर्मोंके क्षयके अभावको सूचित करता है । बन्धपद कर्मोंके स्थितिवन्ध, अनुभागवन्ध और प्रदेशवन्धके अभावको सूचित करता है। उदयपद प्रकृतिबन्धके उदय और उदीरणाकी सूचना करता है। निर्जरापद क्षीणकपायवीतरागके गुणश्रेणी निर्जराका विधान करता है। इस प्रकार इस मूलगाथामे इतने अर्थो का विचार करना चाहिए। अब क्षपणासम्बन्धी अट्ठाईसवी जो एक संग्रहणी मूलगाथा हैं, वह विभाषा करनेके योग्य है । उसकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥१५६९-१५७०॥ ___इस प्रकार मोहनीय कर्मके सर्वथा क्षीण होने तक संक्रमणाविधि, अपवर्तनाविधि और कृष्टिक्षपणाविधि इतनी ये क्षपणाविधियाँ मोहनीय कर्मकी आनुपूर्वीसे जानना चाहिए ॥२३३॥ विशेषार्थ-इस संग्रहणी-गाथाके द्वारा चारित्रमोहनीयकर्मकी प्रकृतियोके क्षपणाका विधान क्रमशः आनुपूर्वीसे किया गया है, अतएव इसे संग्रहणी-गाथा कहा गया है। १ को सगहो णाम ? चरित्तमोहणीयस्स वित्थरेण पुव्वं परूविदखवणाए दवट्ठियसिस्सजणाणुग्गहट्ट सखेवेण परूवणा संगहो णाम । तदो पुवुत्तासेसत्योवसंहारमूलगाहा संगहणमूलगाहा त्ति भण्णदे । जयध०

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