Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 1001
________________ गा० २३१ ] चारित्रमोहक्षपक-वेद्गत विभिन्नता निरूपण ८९३ १५३५. इत्थवेदेण उवदिस्स खवगस्स णाणत्तं वत्तहस्सामा । १५३६. तं जहा । १५३७. जाव अंतरं ण करेदि ताव णत्थि णाणत्तं । १५३८. अंतरं करेमाणो इत्थवेदस्स पढमट्ठिदि ठवेदि । १५३९. जही पुरिसवेदेण उवदिस्स इत्थवेद खवणद्धा तद्देही इत्थीवेदेण उवदिस्स इत्थवेदस्स पढमीि । १५४०. णवुंसयवेदं खवेमाणस्स णत्थि णाणत्तं । १५४१. बुंसयवेदे खीणे इत्थीवेद खवे । १५४२. जम्महंती पुरिसवेदेण उवदिस्स इत्थीवेदक्खवणद्धा तम्महंती इत्थीवेण उवदिस्स इत्थीवेदस्स खवणद्धा । १५४३. तदो अवगद वेदो सत्त कम्मंसे खवेदि । १५४४. सत्तण्हं पि कम्माणं तुल्ला खवणद्धा । १५४५. सेसेसु पदेसु णत्थि णाणत्तं । १५४६. एतो बुंसयवेदेण उचट्ठिदस्स खवगस्स णाणत्तं वत्तइस्लामो । १५४७, जाव अंतरं ण करेदि ताव णत्थि णाणत्तं । १५४८. अंतरं करेमाणो णवुंसयवेदस्स पढमट्ठिदि वेदि । १५४९. जम्महंती इत्थवेदेण उचट्ठिदस्स इत्थीवेदस्स परमट्ठिदी तम्महंती णवुंसयवेदेण उवदिस्स णवुंसय वेदस्स पढमट्टिदी | १५५०. तदो अंतरदुसमयकदे णवंसयवेदं खवेदुमाढत्तो । १५५१. जद्द ही पुरिसवेदेण उवदिस्स सवेदस्त खवणद्धा तद्देही णवुंसयवेदेण उवदिस्स वुंसयवेदस्स खचणद्धा गदा चूर्णिसू० - अब स्त्रीवेदसे उपस्थित क्षपककी विभिन्नताको कहेंगे । वह इस प्रकार है— जब तक अन्तर नहीं करता है, तब तक कोई विभिन्नता नही है । अन्तरको करता हुआ क्षपक स्त्रीवेदक प्रथमस्थितिको स्थापित करता है । पुरुषवेदसे उपस्थित क्षपकके जितना स्त्रीवेदके क्षपणका काल है, उतनी ही स्त्रीवेदसे उपस्थित क्षपक के स्त्रीवेदी प्रथमस्थिति है | नपुंसकवेदका क्षय करनेवाले क्षपककी प्ररूपणामे कोई विभिन्नता नहीं है । नपुंसक वेद के क्षय करने पर स्त्रीवेदका क्षय करता है । पुरुषवेदसे उपस्थित क्षपकके जितना बड़ा स्त्रीवेदका क्षपणकाल है, उतना ही बड़ा स्त्रीवेदसे उपस्थित क्षपकके स्त्रीवेदका क्षपणकाल है । तत्पश्चात् अर्थात् स्त्रीवेदकी प्रथम स्थिति के क्षीण होनेपर अपगतवेदी होकर हास्यादि छह नोकपाय और पुरुषवेद इन सात कर्मप्रकृतियोंका क्षय करता है । सातो ही कर्मोंका क्षपणकाल है । शेष पदोंमें कोई विभिन्नता नही है । १५३५-१५४५॥ चूर्णि सू० - [0- अब इससे आगे नपुंसक वेदसे उपस्थित क्षपककी विभिन्नता कहेंगे । जब तक अन्तरको नहीं करता है, तब तक कोई विभिन्नता नही है । अन्तरको करता हुआ नपुंसकवेदकी प्रथमस्थितिको स्थापित करता है । स्त्रीवेदसे उपस्थित क्षपकसे जितनी बड़ी स्त्रीवेदकी प्रथम स्थिति है, उतनी ही बड़ी नपुंसकवेदसे उपस्थित क्षपकके नपुंसक - वेदी प्रथमस्थिति है । पुनः अन्तर करनेके दूसरे समय में नपुंसक वेदका क्षय करना प्रारम्भ करता है । पुरुषवेदसे उपस्थित क्षपकके जितना नपुंसकवेदका क्षपणाकाल है, उतना नपुंसकवेदसे उपस्थित क्षपकके नपुंसकवेदका क्षपणाकाल बीत जाता है, तो भी तब तक नपुं

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