Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 1002
________________ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ण ताव णवूसयवेदो खीयदि । १५५२. तदो से काले इत्थीवेदं खवेदुमाहत्तो णवंसयवेदं पि खवेदि । १५५३. पुरिसवेदेण उवडिदस्स जम्हि इत्थिवेदो खीणो तम्हि चेव णवंसयवेदेण उवविदस्स इस्थिवेद-णसयवेदा च दो वि सह खिज्जति । १५५४ तदो अवगदवेदो सत्त कम्यंसे खवेदि । १५५५. सत्तण्हं कम्माणं तुल्ला खवणद्धा । १५५६. सेसेसु पदेसु जधा पुरिसवेदेण उवहिदस्स अहीणमदिरित्तं तत्थ णाणत्तं । १५५७. जाधे चरिमसमयसुहुमसांपराइयो जादो ताधे णामा-गोदाणं द्विदिवंधो अट्ट महत्ता। १५५८. वेदणीयस्त हिदिबंधो चारस मुहुत्ता। १५५९. तिण्हं धादिकम्माणं द्विदिबंधो अंतोमुहत्तं । तिण्डं घादिकम्माणं हिदिसंतकम्मं अंतोमुहुत्तं । १५६०. णामा-गोद-वेदणीयाणं द्विदिसंतकम्ममसंखेन्जाणि वस्साणि । १५६१. मोहणीयस्स द्विदिसंतकम्यं णस्सदि। १५६२. तदो से काले पढमसमयखीणकसायो जादो। १५६३. ताधे चेव द्विदिअणुभाग-पदेसस्स अबंधगो। १५६४. एवं जाव चरिमसमयाहियावलियछदुमत्थो ताव तिण्हं धादिकम्माणमुदीरगो । १५६५. तदो दुचरिमसमये णिद्दा-पयलाणमुदयसंतवोच्छेदो। १५६६. तदो णाणावरण-दसणावरण-अंतराइयाणमेगसमएण संतोदयवोच्छेदो । सकवेद क्षीण नही होता है । पश्चात् अनन्तर समयमे स्त्रीवेदका क्षपण प्रारम्भ करता हुआ नपुंसकवेदका भी क्षय करता है । पुरुपवेदसे उपस्थित क्षपकका जिस समयमे स्त्रीवेद क्षीण होता है उस ही समयमै नपुंसकवेदसे उपस्थित क्षपकके वीवेद और नपुंसकवेद दोनो ही एक साथ क्षयको प्राप्त होते हैं । पुनः अपगतवेदी होकर सात नोकपायरूप कांशोका क्षय करता है । सातो ही नोकपायोका क्षपणाकाल समान है। शेष पदोमे जैसी विधि पुरुषवेदसे उपस्थित आपककी कही गई है, वैसी ही विधि हीनता और अधिकतासे रहित यहाँ भी कहना चाहिए ॥१५४६-१५५६॥ चूर्णिसू०-जिस कालमे चरम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक होता है, उस कालमे नाम और गोत्रकर्मका स्थितिवन्ध आठ मुहूर्त-प्रमाण है । वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध वारह मुहूर्तप्रमाण है । शेष तीनो घातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है । तीनो घातिया कोंका स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है। नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मका स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्ष है । यहॉपर मोहनीय कर्मका स्थितिसत्त्व नाशको प्राप्त हो जाता है॥१५५७-१५६१॥ चूर्णिस०-तदनन्तर कालमें वह प्रथमसमयवर्ती क्षीणकषाय हो जाता है। उस ही समयमे वह सव कर्मोंकी स्थिति, अनुभाग और प्रदेशका अवन्धक हो जाता है । इस प्रकार वह एक समय अधिक आवलीमात्र छद्मस्थकालके शेष रहने तक तीनो घातिया कर्मोंकी उदीरणा करता रहता है। तत्पश्चात् क्षीणकषायके द्विचरम समयमें निद्रा और प्रचलाके उद्य और सत्त्वका एक साथ व्युच्छेद हो जाता है। तदनन्तर एक समयमे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनो घातिया कोंके उदय तथा सत्त्वका एक साथ व्युच्छेद हो जाता है ॥१५६२-१५६६॥

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