Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 990
________________ ८८२ कलाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार (१६५) जं जं खवेदि किट्टि टिदि-अणुभागेसु केसुदीरेदि । संछहदि अण्णकिमि से काले तासु अण्णासु ॥२१८॥ १४२४. एदिस्से दस भासगाहाओ । १४२५. तत्थ पढमाए भासगाहाए समुकित्तणा। (१६६) बंधो व संकमो वा णियमा सव्वेसु द्विदिविसेसेसु । सव्वेसु चाणुभागेसु संकमो मज्झिमो उदओ ॥२१९॥ १४२६. 'बंधो व संकमो वा णियमा सव्येसु द्विदिविसेसेसु त्ति एदं णज्जदि वागरणसुत्तं त्ति एदं पुण पुच्छासुत्तं ? १४२७. तं जहा । १४२८. बंधो व संकमो वा णियमा सव्वेसु द्विदिविसेसेसु त्ति एदं णव्वदि णिदिति । एदं पुण पुच्छिदं किं सव्वेसु हिदिविसेसेसु, आहो ण सव्वेसु ? १४२९. तदो वत्तव्यं ण सव्वेसु त्ति । १४३०. किट्टीवेदगे पगदं ति चत्तारि मासा एत्तिगाओ द्विदीओ वज्झति आवलिय जिस-जिस कृष्टिका क्षय करता है, उस-उस कृष्टिको किस-किस प्रकार के स्थिति और अनुभागोंमें उदीरणा करता है ? विवक्षित कृष्टिको अन्य कृष्टि में संक्रमण करता हुआ किस-किस प्रकारके स्थिति और अनुभागोंसे युक्त कृष्टि में संक्रमण करता है ? तथा विवक्षित समयमें जिस स्थिति और अनुभागयुक्त कृष्टियोंमें उदीरणा, संक्रमणादि किये हैं, अनन्तर समयमें क्या उन्हीं कृष्टियोंमे उदीरणा-संक्रमणादि करता है, अथवा अन्य कृष्टियोंमें करता है ? ॥२१८॥ चूर्णिसू०-इस मूलगाथाके अर्थका व्याख्यान करनेवाली दश भाष्यगाथाएँ हैं। उनमेसे प्रथम भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥१४२४.१४२५॥ विवक्षित कृष्टिका वन्ध अथवा संक्रमण नियमसे क्या सभी स्थितिविशेषों में होता है ? विवक्षित कृष्टिका जिस कृष्टिमें संक्रमण किया जाता है, उसके सर्व अनुभागविशेषोंमें संक्रमण होता है। किन्तु उदय मध्यम कृष्टिरूपसे जानना चाहिए ॥२१९॥ चूर्णिसू०-'बंधो व संकमो वा' इत्यादि यह गाथाका पूर्वार्ध व्याकरणसूत्र नहीं है, किन्तु यह पृच्छासूत्र है । वह इस प्रकार है-'बन्ध और संक्रमण नियमसे सर्व स्थितिविशेपोमे होते हैं, इस वाक्यके द्वारा यह निर्दिष्ट किया गया है, अर्थात् यह पूछा गया है कि क्या बन्ध और संक्रमण सर्व स्थितिविशेषोमे होता है, अथवा सर्व स्थितिविशेषोमे नहीं होता है ? अतएव इस प्रकारकी पृच्छा होनेपर यह उत्तर कहना चाहिए कि बन्ध और संक्रमण सर्व स्थितिविशेषोमें नहीं होता है । इसका कारण यह है कि यहॉपर कृष्टिवेदकका प्रकरण है और उसके 'चार मास' इतने काल प्रमाणवाली ही संज्वलनकषायकी स्थितियाँ बंधती हैं और उदयावली-प्रविष्ट स्थितियोको छोड़कर शेष स्थितियाँ संक्रमणको प्राप्त होती हैं । १ वागरणसुत्तं ति व्याख्यानसूत्रमिति व्याक्रियतेऽनेनेति व्याकरण प्रतिवचनमित्यर्थः । जयध०

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