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गा० २२१ ]
चारित्रमोहक्षपक कृष्टिक्षपकक्रिया निरूपण
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पविट्ठाओ मोत्तूर्ण सेसाओ संकामिज्जति । १४३१. सव्वेसु चाणुभागेसु संकमो मज्झिमो उदयो ति एवं सव्वं वागरणसुतं । १४३२. सव्वाओ किट्टीओ संकर्मति । १४३३. जं किट्टि वेदयदि तिस्से मज्झिमकिड्डीओ उदिण्णाओ ।
१४३४. तो विदियाए भासगाहाए समुत्तिष्णा १४३५ जहा | (१६७) संकामेदि उदीरेदि चावि सव्वेहिं द्विदिविसेसेहिं । किट्टीए अणुभागे वेदेंतो मज्झिमो नियमा ॥ २२० ॥
१४३६. विहासा । १४३७. एसा विगाहा पुच्छासुतं । १४३८. किं सव्वे द्विदिविसेसे कामेदि उदीरेदि वा, आहो ण १ वत्तव्यं । १४३९. आवलियपविठ्ठे मोत्तूण साओ सव्वाओ द्विदीओ संकामेदि उदीरेदि च । १४४०. जं किट्टि वेदेदि तिस्से मज्झिमकिट्टीओ उदीरेदि ।
१४४१. एत्तो तदियाए आसगाहाए समुत्तिणा । १४४२. जहा । (१६८ ) ओकड्डदि जे अंसे से काले किण्णु ते पवेसेदि । ओकड्डिदे च पव्वं सरिसम सरिसे पवसेदि ॥ २२६ ॥
'सव्वेसु चाणुभागेसु' इत्यादि यह सर्व गाथाका उत्तरार्ध व्याकरणसूत्र है, अतएव यह अर्थ करना चाहिए कि वेद्यमान और अवेद्यमान सभी कृष्टियों संक्रमणको प्राप्त होती हैं । तथा जिस कृष्टिको वेदन करता है, उसकी मध्यम कृष्टियाँ उदीर्ण होती हैं । ( इसका कारण यह है कि वेद्यमान संग्रह कृष्टिके नीचे और ऊपर की कितनी ही कृष्टियोको छोड़ करके मध्यवर्ती कृष्टियाँ ही उदय या उदीरणा रूपसे प्रवृत्त होती है ।। १४२६-१४३३॥
चूर्णिसू (० - अब इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है । वह इस प्रकार है ॥ १४३४-१४३५॥
सर्व स्थितिविशेषोंके द्वारा क्या यह क्षपक संक्रमण और उदीरणा करता है ? कृष्टि अनुभागोंको वेदन करता हुआ नियमसे मध्यम अर्थात् मध्यवर्ती अनुभागोंको ही वेदन करता है || २२०॥
चूर्णिसू०(० - उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है - यह गाथा भी पृच्छासूत्ररूप है । क्या यह कृष्टिवेदक क्षपक सर्व स्थितिविशेषोमे संक्रमण और उदीरणा करता है, अथवा नहीं ? इस प्रश्नका उत्तर कहना चाहिए ? उदयावलीमें प्रविष्ट स्थितिको छोड़कर शेष सर्व स्थितियाँ संक्रमणको भी प्राप्त होती है और उदीरणाको भी प्राप्त होती हैं । तथा जिस कृष्टिको वेदन करता है, उसकी मध्यमकृष्टियोंकी उदीरणा करता है ।। १४३६-१४४०॥ चूर्णिसू० (० - अब इससे आगे तीसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है। वह इस प्रकार है || १४४१-१४४२॥
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जिन कर्माशोंका अपकर्षण करता है उनका अनन्तर समयमें क्या उदीरणामें प्रवेश करता है ? पूर्व समय में अपकर्षण किये गये कर्माश अनन्तर समय में उदीरणा करता हुआ सशको प्रविष्ट करता है, अथवा असदृशको प्रविष्ट करता है १ ॥ २२९ ॥