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गा०
चारिखमोन
चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिक्षपकक्रिया-निरूपण १४७२. विहासा । १४७३. तं जहा । १४७४. जा संगहकिट्टी उद्दिण्णा तिस्से उवरि असंखेज्जदिभागो, हेट्ठा वि असंखेज्जदिभागो किट्टीणमणुदिण्णो । १४७५. मज्झागारे असंखेज्जा भागा किट्टीणमुदिण्णा । १४७६. तत्थ जाओ अणुदिण्णाओ किट्टीओ तदो एकेका किट्टी सव्वासु उदिण्णासु किट्टीसु संकमेदि । १४७७. एदेण कारणेण जा वग्गणा उदीरेदि अणंता तासु संकयदि एक्का ति भण्णदि ।
१४७८. एकिस्से वि उदिण्णाए किडीए क्षेत्तियाओ किट्टीओ संकमंति ? १४७९. जाओ आवलिय-पुचपविट्ठाओ उदएण अधढिदिगं विपचंति ताओ सव्वाओ एकिस्से उदिण्णाए किट्टीए संकमंति । १४८०. एदेण कारणेण पुन्बपविट्ठा एकिस्से अणेता त्ति अण्णंति ।
__ १४८१. एत्तो णवमी भासगाहा । (१७४) जे चावि य अणुभागा उदीरिदा णियमसा पओगेण ।
तेयप्पा अणुभागा पुवपविट्ठा परिणमति ॥२२७॥ अवेद्यमान वर्गणाएँ ( कृष्टियाँ ) हैं, वे एक-एक वेद्यमान मध्यम कृष्टिके रवरूपसे नियमतः परिणत होती हैं ॥२२६॥
चूर्णिसू०-उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है-जो संग्रहकृष्टि उदीर्ण हुई है, उसके ऊपर भी कृष्टियोका असंख्यातवॉ भाग और नीचे भी कृष्टियोका असंख्यातवॉ भाग अनुदीर्ण रहता है। अर्थात् विवक्षित वेद्यमान संग्रहकृष्टिके उपरितन-अधस्तन असंख्यात. भाग कृष्टियाँ अपने रूपसे सर्वत्र उदयमें प्रवेश नहीं करती है। मध्य आकारमे अर्थात् विवक्षित संग्रहकृष्टिके मध्यम भागमे कृष्टियोका असंख्यात बहुभाग उदीर्ण होता है, अर्थात् अपने रूपसे ही उदयमे प्रवेश करता है। उनमें जो अनुदीर्ण कृष्टियाँ हैं, उनमेसे एक-एक कृष्टि सर्व उदीर्ण कृष्टियोपर संक्रमण करती है। इस कारणसे गाथाके पूर्वार्धमे ऐसा कहा गया है कि 'जिन अनन्त वर्गणाओको उदीर्ण करता है, उनपर एक-एक वर्गणा संक्रमण करती है - १४७२-१४७७॥
शंका-एक-एक भी उदीर्ण कृष्टिपर कितनी कृष्टियाँ संक्रमण करती हैं ? ॥१४७८॥
समाधान-जितनी कृष्टियाँ उदयावलीमे प्रविष्ट होकर उदयसे अधःस्थिति-गलनरूप विपाकको प्राप्त होती है, वे सब एक-एक उदीर्ण कृष्टिपर संक्रमण करती हैं। इस कारणसे गाथाके उत्तरार्धमे ऐसा कहा गया है कि 'उदयावलीमे प्रविष्ट अनन्त वर्गणाएँ एक एक कृष्टिपर संक्रमण करती हैं। ॥१४७९-१४८०॥
चूर्णिसू०-अब इससे आगे नवमी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥१४८१॥ - जितनी भी अनुभागकृष्टियाँ प्रयोगकी अपेक्षा नियमसे उदीर्ण की जाती हैं, उतनी ही पूर्व-प्रविष्ट अर्थात् उदयावली-प्रविष्ट अनुभागकृष्टियाँ परिणत होती हैं।।२२७॥