Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 996
________________ ૮૮૮ ૮૮ कसाय पाहुड सुत्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार १४८२. विहासा । १४८३. जाओ किट्टीओ उदिण्णाओ ताओ पडुच्च अणुदीरिज्जमाणिगाओ वि किट्टीओ जाओ अधहिदिगमुदयं पविसंति ताओ उदीरिज्जमाणियाणं किट्टीणं सरिसाओ भवंति । १४८४. एत्तो दसमी भासगाहा । (१७५) पच्छिम-आवलियाए समयूणाए दुजे य अणुभागा। उकस्स-हेट्ठिमा मज्झिमासु णियमा परिणमंति ॥२२८॥ १४८५. विहासा । १४८६. पच्छिम-आवलिया त्ति का सण्णा ? १४८७. जा उदयावलिया सा पच्छिमावलिया । १४८८. तदो तिस्से उदयावलियाए उदयसमयं मोत्तूण सेसेसु समएसु जा संगहकिट्टी वेदिज्जमाणिगा, तिस्से अंतरकिट्टीओ सव्वाओ ताव धरिज्जति जाव ण उदयं पविट्ठाओ त्ति । १४८९. उदयं जाधे पविट्ठाओ ताधे चेव तिस्से संगहकिट्टीए अग्गकिट्टिमादि कादण उवरि असंखेज्जदिभागो जहणियं किट्टिमादि कादूण हेहा असंखेजदिभागो च मज्झिमकिट्टीसु परिणमदि । १४९०. खवणाए चउत्थीए मूलगाहाए समुक्कित्तणा । चूर्णिसू०-अब उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है जो कृष्टियाँ उदीर्ण हुई हैं, उनकी अपेक्षा अनुदीर्यमाण भी कृष्टियाँ जो अधःस्थितिगलनरूपसे उदयमें प्रवेश करती हैं, वे उदीयमाण कृष्टियोके सहश होती हैं ॥१४८२-१४८३॥ चूर्णिसू०-अव इससे आगे दशमी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥१४८४॥ एक समय कम पश्चिम आवलीमें जो उत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग-स्वरूप कृष्टियाँ हैं, वे मध्यवर्ती बहुभाग कृष्टियोंमें नियमसे परिणमित होती हैं ॥२२८॥ चूर्णिसू०-अब उक्त भाज्यगाथाकी विभाषा की जाती है ।।१४८५।। शंका-पश्चिम-आवली इस संज्ञाका क्या अर्थ है ? ॥१४८६॥ समाधान-जो उदयावली है, उसे ही पश्चिम-आवली कहते हैं ॥१४८७।। चूर्णिस०-इसलिए उस उदयावलीमें उदयरूप समयको छोड़कर शेष समयोमें जो वेद्यमान संग्रहकृष्टि है, उसकी सर्व अन्तरकृष्टियाँ तब तक धारण की जाती हैं, जब तक कि वे उदयमे प्रविष्ट नहीं हो जाती है। जिस समय वे उदयमे प्रविष्ट होती हैं, उस समयमे ही उस संग्रहकृष्टिकी अग्रकृष्टिको आदि करके उपरितन असंख्यातवाँ भाग और जघन्यकृष्टिको आदि करके अधस्तन असंख्यातवॉ भाग मध्यम कृष्टियोंमे परिणमित होता है ॥१४८८-१४८९॥ चूर्णिसू०-अव क्षपणा-सम्बन्धी चौथी मूलगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ।।१४९०॥

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