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गा० २३१ ]
चारित्रमोहक्षपक- कृष्टिक्षपणक्रिया निरूपण
(१७६) किट्टीदो किट्टि पुण संकमदि खरण किं प्रयोगेण ।
किं सहि किट्टीय संकमो होदि अणिरसे ॥ २२९॥
१४९१. एदिस्से वे भासगाहाओ ।
(१७७) किट्टीदो किट्टि पुण संकमदे नियमसा पओगेण । किट्टीए सेसगं पुण दो आवलियासु जं बद्ध ॥ २३०॥
१४९२. विहासा । १४९३. जं संगहकिट्टि वेण तदो से काले अण्णं संगहकिट्टि पवेदयदि, तदो तिस्से पुव्वसमयवेदिदाए संगह किट्टीए जे दो आवलियबंधा दुसमणा आवलियपविट्ठा च अस्सि समए वेदिज्जमाणिगाए संगह किट्टीए पओगसा संकर्मति । १४९४. एसो पढमभासगाहाए अत्थो ।
१४९५. एत्तो विदियभासगाहाए समुत्तिणा ।
( १७८ ) समयणा च पविट्ठा आवलिया होदि पढमकिट्टीए । पुण्णा जं वेदयदे एवं दो संकमे होंति ॥२३१॥
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एक कृष्टिसे दूसरी कृष्टिको वेदन करता हुआ क्षपक पूर्व-वेदित कृष्टिके शेष अंशको क्या क्षय अर्थात् उदयसे संक्रमण करता है, अथवा प्रयोगसे संक्रमण करता है ? तथा पूर्ववेदित कृष्टिके कितने अंशके शेष रहनेपर अन्य कृष्टिमें संक्रमण होता है ? ॥२२९॥
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चूर्णिसू० - इस मूलगाथाके अर्थका व्याख्यान करनेवाली दो भाष्यगाथाएँ है उनमें यह प्रथम भाष्यगाथा है ॥१४९१॥
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एक कृष्टि के वेदित-शेष प्रदेशाग्रको अन्य कृष्टिमें संक्रमण करता हुआ नियमसे प्रयोग के द्वारा संक्रमण (क्षय) करता है । दो समय कम दो आवलियों में बँधा हुआ जो द्रव्य है, वह कृष्टि के वेदित - शेष प्रदेशका प्रमाण है || २३० ॥
चूर्णिसू० ० - उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है - जिस संग्रहकृष्टिको वेदन करके उससे अनन्तर समयमै अन्य संग्रहकृष्टिको प्रवेदन करता है, तब उस पूर्व समयमे वेदित संग्रहकृष्टिके जो दो समय कम दो आवली-बद्ध नवक समयप्रवद्ध हैं वे और उदयावलीप्रविष्ट जो प्रदेशाग्र है, वे इस वर्तमान समयमे वेदन की जानेवाली संग्रहकृष्टि प्रयोगसे संक्रमित होते हैं । यह प्रथम भाष्यगाथाका अर्थ है ।। १४९२ - १४९४ ॥
चूर्णिसू०(० - अब इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥ १४९५ ॥
एक समय कम आवली उदयावलीके भीतर प्रविष्ट होती है और जिस संग्रहकृष्टिका अपकर्षणकर इस समय वेदन करता है, उस प्रथम कृष्टिकी सम्पूर्ण आवली प्रविष्ट होती है, इस प्रकार दो आवलियाँ संक्रमणमें होती हैं ||२३१||
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