Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 998
________________ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार १४९६. विहासा । १४९७. तं जहा । १४९८. अण्णं किट्टि संकममाणस्स पुचवेदिदाए समयूणा उदयावलिया वेदिज्जमाणिगाए किट्टीए पडिवुण्णा उदयावलिया एवं किट्टीवेदगरस उक्कस्सेण दो आवलियाओ । १४९९. ताओ वि किट्टीदो किट्टि संकममाणस्स से काले एक्का उदयावलिया भवदि । १५००. चउत्थी मूलगाहा खवणाए समत्ता । १५०१. एसा परूवणा पुरिसवेदगस्स कोहेण उवट्ठिदस्स । १५०२. पुरिसवेदयस्स चेव माणेण उपट्ठिदस्स णाणत्तं वत्तइस्सामो । १५०३. तं जहा । १५०४. अंतरे अकदे णत्थि णाणत्तं । १५०५. अंतरे कदे णाणत्तं । १५०६. अंतरे कदे कोहस्स पहमद्विदी णत्थि, माणस्स अस्थि । १५०७. सा केम्महंती' ? १५०८. जद्देही कोहेण उवविदस्स कोहस्स पडमट्टिदी कोहस्स चेव खवणद्धा तद्देही चेव एम्महंती माणेण उवढिदस्स माणस्स पडयहिदी। चर्णिस०-उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है, वह इस प्रकार है-अन्य कृष्टिको संक्रमण करनेवाले क्षपकके पूर्व वेदित कृष्टिकी एक समय कम उदयावली और वेद्यमान कृष्टिकी परिपूर्ण उदयावली इस प्रकार कृष्टिवेदकके उत्कर्पसे दो आवलियाँ पाई जाती है। वे दोनो आवलियाँ भी एक कृष्टि से दूसरी कृष्टिको संक्रमण करनेवाले क्षपकके तदनन्तर समयमें एक उदयावलीरूप रह जाती है । ( क्योकि एक समय कम आवलीमात्र गोपुच्छाओंके स्तिवुकसंक्रमणसे वेद्यमान कृष्टिके ऊपर संक्रमित करनेपर तदनन्तर समयमें एक उदयावली ही पाई जाती है । ) ॥१४९६-१४९९॥ चूर्णिसं०-इस प्रकार क्षपणामे प्रतिवद्ध चौथी मूलगाथाकी भाष्यगाथाओका अर्थ समाप्त हुआ ॥१५००॥ चूर्णिस०-यह सव उपर्युक्त प्ररूपणा क्रोधके उदयके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए पुरुपवेदी क्षपककी जानना चाहिए । अव मानके उदयके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले पुरुपवेदी क्षपकके जो विभिन्नता है, उसे कहेंगे । वह इस प्रकार है-अन्तरकरणके नहीं करने तक कोई विभिन्नता नहीं है। अन्तरकरणके करनेपर विभिन्नता है। ( उसे कहते हैं) अन्तरकरणके करनेपर क्रोधकी प्रथम स्थिति नहीं होती है, किन्तु मानकी होती है ।।१५०१-१५०६॥ शंका-वह मानकी प्रथमस्थिति कितनी बड़ी है ? ॥१५०७॥ समाधान-क्रोधके उदयसे श्रेणीपर चढ़े हुए जीवके जितनी घड़ी क्रोधकी प्रथमस्थिति है और जितना बड़ा क्रोधका ही क्षपणाकाल है, उतनी ही बड़ी मानकें उदयसे श्रेणीपर चढ़नेवाले जीवके मानकी प्रथम स्थिति है ॥१५०८॥ १ कियन्महती किंप्रमाणेति प्रश्नः कृतो भवति । जयध०

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