Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 994
________________ ८८६ कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार १४६१. विहासा । १४६२. जत्तो पाए असंखेज्जाणं समयपवद्धाणमुदीरगो तत्तो पाए जमुदीरिज्जदि पदेसग्गं तं थोवं । १४६३. जमधहिदिगं पविसदि तमसंखेज्जगुणं। १४६४. असंखेज्जलोगभागे उदीरणा अणुत्तसिद्धी । १४६५. एत्तो सत्तमी भासगाहा । १४६६. तं जहा । (१७२) आवलियं च पविष्टुं पओगसा णियमसा च उदयादी। उदयादिपदेसग्गं गुणेण गणणादियंतेण ॥२२५॥ १४६७ विहासा । १४६८. तं जहा । १४६९. जमावलियपविट्ठ पदेसग्गं तमुदए थोवं । विदियहिदीए असंखेज्जगुणं । एवमसंखेज्जगुणाए सेढीए जाव सव्विस्से आवलिगाए। १४७०. एत्तो अट्ठमी भासगाहा । १४७१. तं जहा । (१७३) जा वग्गणा उदीरेदि अणंता तासु संक्रमदि एका । पुवपविट्ठा णियमा एकिस्से होति व अणंता ॥२२६॥ चूर्णिसू०-इस भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है-जिस पाये (स्थल ) पर असंख्यात समयप्रवद्धोकी उदीरणा करता है, उस पाये पर जो प्रदेशाग्र उदीरित करता है, वह अल्प है । जो अधःस्थितिगलनकी अपेक्षा प्रदेशाग्र उदयावलीमे प्रविष्ट करता है, वह असंख्यातगुणित होता है। इससे आगे अधस्तन भागमें सर्वत्र असंख्यात लोकप्रतिभागकी अपेक्षा उदीरणा अनुक्त-सिद्ध है। अर्थात् आगे आगेके समयोमे उदीर्यमाण द्रव्यकी अपेक्षा कर्मोदयसे प्रविश्यमान द्रव्य असंख्यातगुणित अधिक होता है और उदीर्यमाण द्रव्य उसके असंख्यातवें भाग होता है ॥१४६१-१४६४॥ चूर्णिसू० -अब इससे आगे सातवीं भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है। वह इस प्रकार है ॥१४६५-१४६६॥ ‘कृष्टिवेदक क्षपकके प्रयोगके द्वारा उदय है आदिमें जिसके ऐसी आवलीमें अर्थात् उदयावलीमें प्रविष्ट प्रदेशाग्र नियमसे उदयसे लगाकर आगे आवलीकाल-पर्यन्त असंख्यातगुणित श्रेणीरूपसे पाया जाता है ॥२२५॥ . चूर्णिस०-उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है-कृष्टिवेदक क्षपकके उदयावलीमें प्रविष्ट जो प्रदेशाग्र पाया जाता है, वह उदयमे अर्थात् उदयकालके प्रथम समयमें सबसे कम पाया जाता है। द्वितीय स्थितिमें असंख्यातगुणित पाया जाता है। इस प्रकार सम्पूर्ण आवलीके अन्तिम समय तक असंख्यातगुणितश्रेणीरूपसे वृद्धिगत प्रदेशाग्र पाये जाते हैं ॥१४६७-१४६९॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे आठवीं भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है। वह इस प्रकार है ॥१४७०-१४७१॥ जिन अनन्त वर्गणाओंको उदीर्ण करता है, उनमें एक-एक अनुदीर्यमाण कृष्टि संक्रमण करती है। तथा जो पूर्व-प्रविष्ट अर्थात् उदयावलीमें प्रविष्ट अनन्त

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