Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

Previous | Next

Page 988
________________ ८८० कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार (१६२) पढमं विदियं तदियं वेदेतो वावि संछहलो वा । चरिमं वेदयमाणो खवेदि उभएण सेसाओ ॥२१५॥ १४०४. विहासा । १४०५. तं जहा । १४०६. पढमं कोहस्स किट्टि वेदेतो वा खवेदि, अधवा अवेदेंतो संछुहंतो । १४०७ जे दो आवलियबंधा दुसमयूणा तें अवेदेंतो खवेदि, केवलं संछुहंतो चेव । १४०८. पढमसमयवेदगप्पहुडि जाव तिस्से किट्टीए चरिमसमयवेदगो त्ति ताव एदं किट्टि वेदेंतो खवेदि । १४०९. एवमेदं पि पडमकिट्टि दोहिं पयारेहिं खवेदि किंचि कालं वेदेतो, किंचि कालमवेदेंतो संछुहंतो । १४१०. जहा परमकिट्टि खवेदि तहा विदियं तदियं चउत्थं जाव एक्कारसमि त्ति । १४११ वारसमीए वादरसांपराइयकिट्टीए अव्ववहारो । १४१२. चरिमं वेदेमाणो त्ति अहिप्पायो-जा सुहुमसांपराइयकिट्टी सा चरिमा, तदो तं चरिमकिट्टि वेदेंतो खवेदि, ण संछुहतो । १४१३. सेसाणं दो दो आवलियबंधे दुसमयूणे चरिमे संछुहंतो चेव खवेदि, ण वेदेंतो । १४१४. चरिमकिट्टि वज्ज दो आवलिय-दुसमयूणवंधे च - क्रोधकी प्रथम कृष्टि, द्वितीय कृष्टि और तृतीय कृष्टिको वेदन करता हुआ और संक्रमण करता हुआ भी क्षय करता है। चरम अर्थात् अन्तिम बारहवीं सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिको वेदन करता हुआ ही क्षय करता है। शेष कृष्टियोंको दोनों प्रकारसे क्षय करता है ॥२१५।। चूर्णिसू०-उक्त भाष्यगाथाकी 'विभाषा इस प्रकार है-क्रोधकी प्रथम कृष्टिको वेदन करता हुआ भी क्षय करता है, अथवा अवेदन करता हुआ भी क्षय करता है, अथवा संक्रमण करता हुआ भी क्षय करता है । जो दो समय कम दो आवलि-बद्ध ( नवक-बद्ध ) कृष्टियाँ है, उन्हे वेदन न करके केवल संक्रमण करता हुआ ही क्षय करता है। क्रोधकी प्रथमकृष्टिके वेदन करनेके प्रथम समयसे लेकर जबतक उस कृष्टिका चरमसमयवर्ती वेदक रहता है, तब तक इस कृष्टिको वेदन करता हुआ ही क्षय करता है। इस प्रकार इस प्रथम कृष्टिको दोनो प्रकारोसे क्षय करता है, कुछ काल तक वेदन करते हुए, और कुछ काल तक वेदन न कर संक्रमण करते हुए क्षय करता है । जिस प्रकार प्रथम कृष्टिका क्षय करता है, उसी प्रकार द्वितीय, तृतीय, चतुर्थको आदि लेकर ग्यारहवीं कृष्टि तक सब कृष्टियोका दोनो विधियोसे क्षय करता है ॥१४०४-१४१०॥ चूर्णिसू०-बारहवीं बादरसाम्परायिक कृष्टिमें उक्त व्यवहार नही है । ( क्योंकि, सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिरूपसे परिणत होकरके ही उसका क्षय देखा जाता है। 'चरम कृष्टिको वेदन करता हुआ क्षय करता है' इस पदका अभिप्राय यह है कि जो सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि है वह चरमकृष्टि कहलाती है, अतएव उस चरम कृष्टिको वेदन करता हुआ क्षय करता है, संक्रमण करता हुआ नहीं । शेष कृष्टियोके दो समय-कम दो आवलीमात्र नवकबद्ध कृष्टियोको चरम कृष्टिमें संक्रमण करता हुआ ही क्षय करता है, वेदन करता हुआ नहीं । इस प्रकार

Loading...

Page Navigation
1 ... 986 987 988 989 990 991 992 993 994 995 996 997 998 999 1000 1001 1002 1003 1004 1005 1006 1007 1008 1009 1010 1011 1012 1013 1014 1015 1016 1017 1018 1019 1020 1021 1022 1023 1024 1025 1026 1027 1028 1029 1030 1031 1032 1033 1034 1035 1036 1037 1038 1039 1040 1041 1042 1043